शायद
तुम कहती हो, तुम जानती हो मुझे,
हाँ शायद, तुम्हारी आँखें रोज आती हैं, मेरे हँसते चेहरे तक, तुम्हारे हाथ रोज बढ़ आते हैं, मेरे हाथों तक, कितनी बातें रोज करते हैं हम, कभी जल्दी, कभी देर तक, हाँ, तुम जानती हो मुझे, मेरी हँसती आँखों की उदासी पढ़ लेती हो तुम, शायद, मेरे हाथों की गर्मी से मेरे जज़्बातों तक बढ़ लेती हो तुम, शायद, मेरी अनकही बातों से मेरी नादान शिकायतें गढ़ लेती हो तुम, शायद, और जान जाती हो तुम, ये उदासी, ये आँसुं तो सिर्फ पानी हैं, ये जज़्बात सतही हैं, ये सब कहानी है, ये शिकायतें नई क्या हैं, सब पुरानी हैं मैं नहीं जानता, तुम्हारा मुझे जानना, ये भरोसा है, या छलावा है, ये मोहब्बत है, या दिखावा है, शायद तुम जानती हो मुझे, बस यूंही. |
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