बेताब ही निकले._मोहमदाअली’वफा’ -
29th January 2008, 12:15 PM
बेताब ही निकले._मोहमदाअली’वफा’
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मुफलीसके मुकादरमें नायाब ही निकले.
सब सितारे रातको बेताब ही निकले.
जाके सूरजकी आंखमें कोइ झहर घोले,
ईस शहर के बाम से नासाझ ही निकले.
तुने रचाई अब कतलकी खूब ये साझिश,
मर जाये मझलुम न कोइ बात ही निकले.
अपने समझके जिनको अपनाये थे ‘वफा’
सब के सब आस्तीनके सांप ही नीकले.
हमने रचाइ जिस्के पर उम्मीदकी मंझिल
वो तो ‘वफा’ बेदारीके खवाब ही निकले.
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होता नही रफीक भी खुश देख कर हमें,
फीर रकीब से कोइ उम्मीद क्या रखें
29जनवरी2008
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