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Originally Posted by rajinderseep
आज़ादी
वह खिड़की से
बाहर झांक रहा था
डरा हुआ ,सहमा हुआ
काँप रहा था।
सोच रहा था ,क्यों
अपने ही घर में
बंद रहने की विबशता है ?
क्या यह व्यवस्ता है ,या
अव्यवस्ता है ?
घर में बची नहीं पानी की इक बूँद
बाहर गलियों में बिखरा हुआ खून
पता नहीं
क्या महँगा है क्या सस्ता है।
आतंक का साया
गोलियों की गूँज
इंसान इंसानियत कुछ भी नहीं
महफूज।
क्या यह व्यवस्ता है ,या
अव्यवस्ता है ?
व्यवस्ता और अव्यवस्ता
का जिमेदार कोन ?
इंसान की विबशता का
गुनाहगार कोन ?
उम्र छोटी थी
सवाल बड़े थे
सवालों को सुन
बुजर्गों के रोंगटे भी
उठ खड़े थे।
पहले करता सवाल
क्या होती है आज़ादी
फिर कहता
मुझे समझ आ गया
क्या होती है आज़ादी
घर से निकलने को कहते है ,
आज़ादी
मुझको भी चाहिए
आज़ादी।
राजिंदरसीप
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Bahut khoob rajinder ji....................mm..mm