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हालात तो पूछलो—मुहम्मदअली वफा -
15th September 2010, 10:31 AM
हालात तो पूछलो—मुहम्मदअली वफा
आते जाते कोई भी बात तो पूछ लो
ईत्तेफाकन सही कुछ हालात तो पूछ लो
क्या भरोसा ईसका कब दिया बूझे
कितनी बची है तेलकी सोगात तो पूछ लो
14सेप्त2010
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हंस दिया—मुहम्मदअली वफा -
20th September 2010, 11:44 AM
हंस दिया—मुहम्मदअली वफा
सऊबते जिन्दान सहकर भी हमने हंस दिया
और हलाहल ज़हर पीकर भी हमने हंस दिया
जुल्मकी दीवारें चुनते ठक गये तुम ज़ालिमों
ये दारो रसन पर चढकर भी हमने हंस दिया
दार=फांसी 20सप्टे.2010
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Haalaato se -
21st September 2010, 10:17 PM
Haalaato se pauchane ko ham mohataaj nahi hai
khud ke banaye hue haalaato me ham aaj nahi hai.
Ajay Nidaan (09630819356)
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अपने बाग से-मुहम्मदअली वफा -
3rd October 2010, 08:45 AM
अपने बाग से-मुहम्मदअली वफा
फूलके होते हैं चंद दिन बहार के,
कांटा निकलता नहीं अपने बाग से.
अपनी मोत से ये बिल्कुल मरा नहीं,
ये जईफ मर गया हसदकी आग से.
सुनता नहीं कोई यहां बुलबुलका तराना,
तुमने अलापा हे सब अपने राग से.
2ओकटो.2010
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Apne hi garebaa -
5th October 2010, 09:09 PM
Apne hi garebaa se jara bahar na aa sake ham
aur tum ho ki haalaato ka shikwa liye baithe ho.
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शोर मचातें हैं._मुहम्मदअली वफा -
21st October 2010, 09:05 AM
शोर मचातें हैं._मुहम्मदअली वफा न जाने क्युं हमें वो आये दिन सतातें है,
अजीब रुस्वा तरीकों से हमें आजमाते हैं.
हमारी खामोशी उनके लिये कुल्फते जां बनी,
अब वो रोतें हैं, पीटतें हैं, मातम मनातें हैं.
हमने भी थान ली है खोलेंगे न जबां अपनी,
और वो सरे बाजार चिल्लाते ,शोर मचातें हैं.
20ओकटो.2010
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पत्थर नहीं मीला_मुहम्मदअली वफा - -
28th October 2010, 10:33 AM
पत्थर नहीं मीला_मुहम्मदअली वफा
सर तो यहां मोज़ुद था पत्थर नहीं मीला,
जालिमको बयाबानमें खंजर नहीं मीला.
मजबूर को सब रास्ते पहाडॉं पे ले गये
मैज़िल तलक जानेको रहबर नही मीला.
कांटो की फसल काटने में लग गये आकिल,
रुस्वा हुए गुलशनमें, फूलका घर नहीं मीला.
झांखा कभी हमने तुम्हारी ये आंखमें,
नफरत मीली प्यारका सागर नहीं मीला
साकी अब तो ठीक है बंध हो ये मै खाने1
तिशना लबी थी कोई चारागर नही मीला,
28ओकटु.2010
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28th October 2010, 09:18 PM
Wafaa Ji
wakaai me kaabile taareef hai. excellent .daad haajir hai janaab
ajay nidaan
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हसरत न कीजये_मुहम्मदअली वफा -
1st November 2010, 09:16 AM
हसरत न कीजये_मुहम्मदअली वफा
इजहारे इल्तेफातकी जहेमत न किजये
दिवारको भी कान है आहट न किजये
टूट ये जाएगी तो भला रोअंगे फूट कर
हदसे गुजरकर यार महोब्बत न किजये
इम्तेहां होगा तेरा अब कोई मक़तलमें
मोहसीन है खंजर बपा हरकत न किजये
में तो वहीं हुं जोभी था पहले तेरे लीये
बदला हुआ मौसम है नफरत न किजये
कांटे मिले तो शौक़ से चून लीये वफा
उजडॆ चमनमें फूलकी हसरत न कीजये
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ek dost -
1st November 2010, 02:19 PM
Wafaa Ji
इजहारे इल्ते.........
Bahut khoob peshkash hai janaab . daad haajir hai.
aja nidaan
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सलाम आया नहीं—मुहम्मदअली वफा -
23rd November 2010, 10:34 AM
सलाम आया नहीं—मुहम्मदअली वफा
मुद्दत हुई कि आअपका कोई पयाम आया नहीं
सच पुछिये तो साकिया तेरा सलाम आया नहीं
हम ने तो समझाथा कि शायद ईन्साफ मयकदे में है
लबरेज की तो बात क्या खाली भी जाम आया नहीं
दोलत कदेमें आपके चर्चा हुई सो नामकी
हेरत है लबपे तुम्हारे मेरा ही नाम आया नहीं
हमभी उठाके देख लेते एक नजारा आंख से
अफसोस ईस डगर पे तो तेरा मकाम आया नहीं
लोग चला लेते हैं झूठेसे भी काम अपना यहां
और वफा तेरा सच्चा सिक्काभी काम आया नहीं.
Last edited by wafa ali; 23rd November 2010 at 10:38 AM..
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24th November 2010, 05:20 PM
Wafaa Ji
मुद्दत हुई कि आअपका कोई पयाम आया नहीं
सच पुछिये तो साकिया तेरा सलाम आया नहीं
Aapki ye ghazal wakai me bahut khoobsurat hai adayegi hai. daad hazir hai janaab.
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चुभती हुई कलम—मुहम्मदअली वफा -
2nd December 2010, 01:52 AM
चुभती हुई कलम—मुहम्मदअली वफा
अल्फाज़ के शीशे तराशीमें गुजरी है सारी जिंदगी
हासिल में किरतास पर चुभती हुई मीली कलम
और प्यारमें भी वफा कुछ एसाही रहा मामला
दिलको खराशने में न आई कभी उनको शरम
1डीसे.2010
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30th December 2010, 09:27 PM
Wafa Ji
अल्फाज़ के शीशे...
Daad haajir hai bahut khoob ...likha hai aapne.
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Recent updates of BAGEWAFA Urdu_Hindi 10Dece.2010 -
31st December 2010, 01:29 AM
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गज़ल:प्यार मत कहिये—मुहम्मदअली वफा -
14th January 2011, 12:50 PM
गज़ल:प्यार मत कहिये—मुहम्मदअली वफा
मुकरा हुआ वादेसे है, यार मत कहिये,
गर पांवमें चुभता नहीं खार मत कहिये.
हरदम खुदाका साथ है ,जंगल बयांबां हो,
हम चाहे अकेले ही सही लाचार मत कहिये.
लद गई है फूलोंसे गुलाबकी तहनी,
हासिलथा ये जिंदगीका बार मत कहिये.
होता न ये तो जल्ती क्या दिलकी कंदीलें?
लावा है ये तो प्यारका अंगार मत कहिये.
मरासिम निभाने थे तो निभाते रहे वफा,
कुछ्भी कहो उसको मगर प्यार मत कहिये.
14जान्यु.2011
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Recent updates of BAGEWAFA Urdu_Hindi 17Feb2011 -
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18th February 2011, 12:39 PM
achi rachnayen hain. padh kar acha laga.
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20th February 2011, 07:40 AM
जंजीर लिये बैठे हैं वो---मुहम्मदअली वफा
हाथोमें जंजीर लिये बैठे हैं वो
जुलमकी जागीर लिये बैठे हैं वो
कीसी मासुम की गर्दन न बचे
मौतकी तस्वीर लिये बैठे हैं वो
हरएक बिमार उनकी आंखो में
दर्दकी तासीर लिये बैठे हैं वो
सबकी गैरत है परीशां उनसे
अपनी एक तश्हीर लिये बैठे हैं वो
ठक गये कान भी अब तो वफा
फरसुदह तकरीर लिये बैठे हैं वो
19फेब्रु.2011
Last edited by wafa ali; 20th February 2011 at 07:43 AM..
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रातें बसर हुई—मुहम्मदअली वफा -
29th March 2011, 11:49 AM
रातें बसर हुई—मुहम्मदअली वफा
अनजान रास्तोंकी देखो सफर हुई
होंसलोंके फासलों से भी गुजर हुई
टूटी सी तहनी पे बन गया मसकन
विरान सहरामेंभी रातें बसर हुई
29मएच2011
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भूक है साहब.-मुहम्मदअली वफा -
3rd May 2011, 08:27 AM
spel error भूक है साहब.-मुहम्मदअली वफा
नीकला मनसे भूत है साहब.
मान लो सब ये झूट है साहब.
पेट ये खाली कीस से भरते
खेतमें ऊगी भूक है साहब.
अब सज़ा बंदरबांट ये प्यारे
ये अनोखी सी लूंट है साहब
अंध की लाठी क्या भई बनते
पूत भी सारे कपूत है साहब
और पीते क्या ईस मकतलमें
खून के ये कुछ घूंट है साहब
Last edited by wafa ali; 3rd May 2011 at 08:28 AM..
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धज्जियां ऊडवाई गई –मुहम्मदअली वफा -
8th May 2011, 08:58 AM
धज्जियां ऊडवाई गई –मुहम्मदअली वफा
दास्ताने गम जो थी, वो फिरसे दोहराई गई
फिर हमारी ही गली में ये आग लगवाई गई
घेरा गया बे दर्दीसे फिरसे हमारे गांव को
एक एक पत्थर ईंटकी धज्जियां ऊडवाई गई
कोन कहता ?क्या वो कहता? सब थे सकतेमे यहां
क्या बताएं? हर तरफसे उनकी रूस्वाई हुई
खूब चींखा,खूब चिल्लाया गरीब मज़लूम तो
वावेल था एक अजीब, ना कोई सुनवाई हुई
जलते हुए घरसे निकाला , और डाला जेलमें
मज्लूमकी इस मुल्कमें खूब पझीराई हुई
4मे2011
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सुरत बदलनी चाहिए—मुअहम्मदअली वफा -
12th May 2011, 03:49 AM
सुरत बदलनी चाहिए—मुअहम्मदअली वफा
ये गरीबोंके घर जलाना मेरा मक्सद नहीं
बेगुनाहोंका खून बहाना मेरा मकसद नहीं
इन्साफ के कठहरोंमें मुजरीम को खडा करदो
सिर्फ हंगामा,खडा कराना मेरा मकसद नही
हालात के मारोंकी हालत सवंरनी चाहिये
जिसने बहाया खून उसे शूली मिलनी चाहिये
कब तक छूपाओगे तुम कातिल सितमगरको
सारी कोशिश है की, सुरत बदलनी चाहिए
अब तो सितमगरकी साजिशें खुलनी चाहिए
सच के लावा की वफा अब आग लगनी चाहिए
मेरे सीनेमें नही तो,अब तेरे सीनेमें सही
हो कहीं भी लेकीन, एक आग जलनी चाहीए”
(श्री दुष्यंत कुमारके एक मुकतककी तझमीन. दुष्यंत कुमार के मिस्रे को लाल रग से छापा गया है)
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Gujarati Language Will Never Die – Dr. Jani -
26th May 2011, 12:43 AM
Gujarati Language Will Never Die – Dr. Jani
By: Firoz Khan[/B]
Speaking as chief guest at Gujarati Literature Diaspora Meet in North York last Saturday Dr.Balwant Jani, ex-vice chancellor of North Gujarat University and currently Head of the Gujarati department of Saurashtra University said, Many Gujaratis in India and abroad feel that their language will die or diminish soon. Their fear based on closures or Gujarati schools and high schools in Gujarat and other places. I won’t say their fear is misplaced. In fact I see in their fear a genuine concern for their mother tongue. And if it is so, let me assure you all that Gujarati will never die or diminish.”
Among thunderous applaud he continued, “Yes, due to increasing popularity of English many languages, including Gujarati are taking back seats. But then this is a temporary phase. In fact this phase has given all of us a good opportunity to not only preserve but also work hard for its spread. To-day Gujaratis are found in all most all countries the world over. So, you see Gujarati is really spreading.”
He further said that Gujaratis are peace loving business community. Many say this language is of commerce only. It is not so. There have been many writers and poets in this language. And even to-day many are there. A few of them are in North America including Canada. In the past I met many of them in UK, Africa and many other countries. I talked to them, collected their details and published in book form. This time I am visiting Canada and US for the same mission.” Pointing to Jay Gajjar, a Mississauga based published writer and winner of many awards he said, “You all should be proud of him.”
Lauding the efforts of Mehfil Group he said, “Firoz Khan and his associates deserve patting on their shoulders for organising to-day’s meeting. I thank them including Jay Gajjar for their tremendous efforts and hospitality. I’ll return back to India with lots of good memories and will cherish them for a long time.”
Jay Gajjar while introducing Dr. Jani said, “His efforts in collecting information about writers and poets abroad and publishing books are commendable. He himself is a published writer.” He further said,”In 1973 there were only 700 Gujaratis in Toronto and GTA. To-day their number is 150,000. So, with the increase of their population Gujarati language has actually spread. Our mother tongue will never die.
Abdul gaffer Shaikh said, "I am a Gujarati Muslim living in Toronto for over 30 years. To-day there are more than 40,000 Gujarati Muslims living in Toronto and GTA. Our community have produced many Gujarati writers and poets. Our contribution to Gujarati literature is substantial.” He presented a bouquet to Dr. Jani.
Ms. D. Caharandasi, consul and head of chancery from Consul general of India, Toronto speaking as gust of honour said, “The biggest contribution of Gujaratis is in business but their contribution to other areas including literature is not less.
Firoz Khan, president of Mehfil Group, well known social and cultural organisation welcomed all guests and Dr. Jani. He said “To-day we are honoured to welcome Dr. Jani.” He also conducted the entire function in a professional way.
Dr. Jani released ‘Flower Vase’ a book of short stories written by Jay Gajjar. Copies of the book were presented to Dr. Jani and Charandasi.
Qasim Abbas, prominent columnist speaking at the function said that Guajarati language is written, read and spoken in large number in Pakistan, particularly in Karachi. He presented two Gujarati books written by Pakistani Gujarati writers and also two Gujarati daily newspapers of Karachi "Millat Gujarati" and "Vatan Gujarati" to Dr. Jani.
Also spoke at the function were Mohammed Ali Bhaidu ‘Wafa’ a Mississauga based poet, Indrakant Patel, editor and publisher of Indian Journal, Vipul Jani, editor and publisher of Gujarat Abroad and many others. At the end refreshment was served to all.
Gujarati writers and poets in Toronto, GTA and anywhere in Ontario are requested to contact Firoz Khan 416 473 3854 or Jay Gajjar 905 568 8025 for giving their information to be passed on to Dr. Jani.
7thMay2011
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Bangladeswh TabligiIjtema -
26th May 2011, 04:09 AM
Bangdesh Tabligi Ijtema 2011
Hudredsand thousand people gathered in an Ijtema in Bangla desh near Dhakaa (Tungi)
The management was done voluntarily by the Bagladeshi brother voluntarily.and the security to eating sleeping and other needs were provided free.
May Allah(S.T.)accept their effort.
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जाम तक नहीं—मुहम्मदअली वफा -
29th May 2011, 09:09 AM
जाम तक नहीं—मुहम्मदअली वफा
ये मयकशी कैसी कि जाम तक नहीं
एक बुंद पीने के लिये दाम तक नहीं
फिर उसने सदा दी हमें उंची आवाज में
बेरुखी तो देखिये के नाम तक नहीं
25मे2011
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24th July 2011, 02:28 AM
बिछड गये—मुहम्मदअली वफा
बागके पंछी बिछड गये
हारके मोती बिखर गये
हाथ न आई कोई पत्ती
पतझड में सब पिघल गये
23जुलाई2011
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खूश्बू ठहर गई.—मुहम्मदअली वफा -
12th September 2011, 12:02 AM
खूश्बू ठहर गई.—मुहम्मदअली वफा
थोडी सी खिजां की यहां किस्मत संवर गई,
वो तो चले गये मगर जरा खूश्बू ठहर गई.
यादोंके झरोंखेसे गुम हो गई मता
अभी अभी यहांथी- अब वो किधर गई.
बरसोंकी अब ये बात -माजीकी दास्तां
काफला गुजर गया- धूल भी बिखर गई.
उंचाईओ पर अब कोई फख्र न करे
नदीआं वहां गई ढलाने जिधर गई.
अब उसका पता है न कोई ठिकाना
मजनूकी सदाथी आई गुजर गई
पाएगा वो कया वफा बहते गुबार में?
रेत के दरियामें जिसकी सहर हुई
11सप्टे.2011
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जबिहा तु बनेगा—मुहम्मदअली वफा -
30th September 2011, 03:19 AM
जबिहा तु बनेगा—मुहम्मदअली वफा
सब खून से रंगे है तेरे हाथ ये दोनो,
किस मुंहसे उनका मसिहा तु बनेगा?
नौटंकी अब तुझे तकिया नहीं देगी,
मजबह में अब तेरा जबिहा तु बनेगा.
किशकोल तेरी बद दुआओंसे भरी है,
जो भी बनेगा अब शिकवा तु बनेगा.
मज्लुम की आहोंका पयमाना भरा है,
कहती है कज़ा अब यहां मुर्दा तु बनेगा.
29सप्टे.2011
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चीख के निकली---मुहम्मदअली वफा -
25th November 2011, 04:35 AM
[ b]चीख के निकली---मुहम्मदअली वफा [/b]अच्छा हुआ तनहाईयां सब साथ में रही
वरना शहरकी भीड यहांसे चीख के निकली
कब तक छुपाओगे तुम ये हकीकत को
मकतुलकी सदा खंजरोकों चीरके निकली
उस आखरी सांसका कैस था बिलकना
ये तल्ख हकीकत तो गलेसे तीरके निकली
दिलकश अदाएं गज़लकी ढूंढ रहे थे
देखा गया तो सिरहाने मीरके निकली
24नवे.2011 ब्राम्पटन
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چيخ کے نکلی --- محمدعلی وفا -
25th November 2011, 08:18 AM
چيخ کے نکلی --- محمدعلی وفا
اچھا ہوا تنہئياں سب ساتھ میں رہی
ورنہ شہركي بھیڑ یہاں سے چیخ کے نکلی
کب تک چھپاوگے تم یہ حقیقت کو
مقتول کی صدا خنجروں کوچيركے نکلی
اس آخری سانسكا کیسا تھا بلكنا
یہ سب حقیقت تو گلےسے تيركے نکلی
دلکش ادائں غزل كي ڈھونڈ رہے تھے
دیکھا گیا تویہ سرہانے ميركے نکلی
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8th December 2011, 02:39 AM
پتھّر نہِیں مِلا_ مُحمّدعلی وفا
سر تو یہاں موجوُد تھا پتھّر نہِیںمِلا،
ظالِم کو بیاںباں میںخنجر نہِیں مِلا۔
مجبُور کو سب راسْتےجنگل میں لے گۓ
منزِل تلک جانیکو رہبر نہی مِلا۔
کانٹو کی فصل کاٹنے میں لگ گۓ آقل،
گُلشن میں، اُنکو پھُولکا گھر نہِیں مِلا۔
جھانکا کبھی ہمنے تُمھاری آنکھمیں،
نفرت مِیلی پْیارکا ساگر نہِیں مِلا
ساقی اب تو ٹھِیک ہَے بندھ ہو یے مَیخانے،
تِشنہ لبی تھی کوئی چاراگر نہی مِلا۔
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پْیار مت کہیے —مُحمّدعلی وفا -
19th December 2011, 10:08 AM
پْیار مت کہیے —مُحمّدعلی وفا
مُکرا ہُواوعدے سے ہَے، یار مت کہیے
گرپاؤںمیں چُبھتا نہِین- خار مت کہیے ۔
ہردم خداکا ساتھ ہَے، جنگل بیانباں ہو
ہم چاہے اکیلے ہی سہی لاچار مت کہیے۔
لد گئ ہَے پھُولونسے گُلاب کی تہنی
حاسِل تھا یے زندگِی کا بار مت کہیے ۔
ہوتا نہ یے تو جلْتی کْیا دل کی قندِیلیں؟
لاوا ہَے یے تو پْیارکا انگار مت کہیے ۔
مراسِم نِبھانے تھے تو نِبھاتے رہے وفا
کچھ بھی کہو اُسکو مگر پْیار مت کہیے ۔
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بھُوک ہَے صاحب۔--محمد علی وفا -
8th January 2012, 09:43 AM
بھُوک ہَے صاحب۔-محمد علی وفا
نِیکلا من سے بھُوت ہَےصاحب
مان لو سب یے جھُوٹ ہَے صاحب
پیٹ یے خالی کِس سے بھرتے
کھیت میں اُوگی بھُوک ہَے صاحب
اب سجا بندربانٹ یے پْیارے
یےبھی انوکھی لُونٹ ہَےصاحب
اندھ کی لاٹھی کْیا بھءی بن تے
پُوت بھی سارے کپُوت ہَے صاحب
اَور پِیتے کْیا اِس مقتل میں
خون کے یے کُچھ گھُونٹ ہَے صاحب
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22nd January 2012, 07:51 AM
1
رستے جوان ہے۔۔۔محمدعلی وفا
کھندہر سا شہر ہو گیا رستے جوان ہے
ہے پرانی تختیاں سب اور نیے نام ہے
روتا رہا وہ باغ باں اُجڑی بہار پر
پتّے پتّے پر کُنندہ ایک بیان ہے
اُنکی نظر کا فاصلہ دوری نَ لا سکا
برسوں ہوئے اِس جخم کو پھر بھی جوان ہے
اب کیسے بُجھائےں اُسے کُچھ مشورہ تو دو
پانی میں لگی آگ اور اُسمین مکان ہے
ہونا تھا وہ ہو گیا اور ہم دیکھتے رہے
دینوں ایماں عزّت لوتی اور بھندھ زبان ہے
مظلوم ٹرپتا رہا دہلیز پر اُنکی
جان آخر دی جھاں دل کی دُکان ہے
1A
یے زندگی کا قافلہ ۔۔۔۔محمد علی ’وفا’’
سایہ ہماری رات کا پگھلا ہوا سا ہے
اپنا مقدّر بھی یہیاں بگڑا ہوا سا ہے
ٹُوٹی ہٰئ دوارکا سایہ غنیمت ہے
اپنا مکاں عرصہ ہوا اُجڑا ہوا سا ہے
شاید اُسے بھی مل گیا کوئ مہرباں
پلکوں اوپر پانی ذرا تھہرا ہوا سا ہے
ہر جائ منزلوں تلے تھہرے نہ کبھی ھم
یہ زندگی کا قافلہ اکھرا ہوا سا ہے
چلدو ’وفا’اس میقدہ سے دور ہی کہیں
شیشوں بھرا کردار بھی ٹوٹا ہوا سا ہے
1B
سودا نہیں کرتا۔۔۔محمد علی وفا
میں درد کو بازار میں بَیچا نہیں کرتا
جاگیر ہے یہ عمر کی سودا نہیں کرتا
فِسلا نہیں میں زندگی کے موژ پرکبھی
اُمّید کے خاڑوں پر رویا نہیں کرتا
عمرکا بہاو ہے جیسے بہے پانی
توٹی ہوئ مینہ سہی جوڑا نہیں کرتا
آزاد ہوں آزادی کا فندہ ہے گلے میں
میں ہر گلی میں آپکو دھُںدھا نہیں کرتا
بادل پر تو گھروںدے کیسے بنے وفا
میں ریت پر قصّہ کبھی لکھانہیں کرتا
2
گِلا تمسے نہیں ، اب تو رہا سارے زمانے سے
ہُےء سب خوش تصویر درد دیکھانے سے
یہاں پھرتے رہے ہم زخم اپنا چُھپاےء سے
کیا تشہیر کا سودا تونے کئ سو بہانے سے
ہماری رینگتی تنہائیوںکا حال نہ پوچھو
ہمارے باغ کا دامن بھڑا پایا ویرانے سے
کبھی پھاڑا غریباں کو کبھی خونِ جگر تپکا
گزرکیسے ہوئ پوچھو نہیں اب تو دہوانے سے
نہٰن منظور اب ہمکو ہمارے ظرف کا سودا
ملاہے یہ ہمیں جوہر ےہاں رب کے خزانے سے
ہمارے خون سے سینچا بڑی دقّت مُشقّت سے
گُلِستاں مِٹ نہیں سکتا باطل کے مٹانے سے
3
جام سےنکلے۔۔محمدعلی وفا
تمّناتھی کے قرع ہمارے نام سے نکلے
سبھی قطرے ہمارے خون کے اس جام سے نکلے
یہاں سُرج ہمارادوبتاہو اُن کی وادی میں
ادھر چاند اُنکا بس ہمارے بام سے نکلے
4
3 نایاب ھی نکلے ۔۔۔محمدعلیوفا
مفلس کے مقدر میں نایاب ھی نکلے
سب ستارے رات کو بتاب ھی نکلے
اکر سورج کی آنکھ میں زہر گھول دو
اس شہرکےسب بام سے ناساز ھی نکلے
تونے رچائ اب تلک خوب یہ سازش
مرجاے مزلوم نا کوئ بات ھی نکلے
اپنے سمجھ کے جنکو اپناےء تھے وفا
آستیں کے سب کے سب سانپ ھی نکلے
جس ِاینت پر ہم نے رچائ اُمّید کی منزل
وہ تووفا توتے ہوےء کچھ خواب ھی نکلے
ہو تا نہیں رفیق بھی خوش دیکھ کر وفا
پھر ہم رقیب سے کوئ اُمّید کیا رکھے
5
تقدیر کا شیشہ۔۔۔محمد علی وفا
رنگ بھی عجیب شئ ہے بدلا ہی کرتا ہے
دل کا بھی ایک رنگ ہے شکوہ ہی کرتا ہے
یہ لگے طاوص کے پر میں یا گرگت کے گلے
کوسینِ آب میں پڑا دھوکہ ہی کرتا ہے
چہرا بدلنے کی ضرورت ہے نھیں اُنکو
رنگ کا بادل ہے یہ پگھلا ہی کرتا ہے
افسوس کے سایہ تو گھتٹیں ہیں بژھٹیں ہیں
قسمت کا تارا بھی اُلجھاہی کرتا ہے
یہ سفر دو راہا ہے یک طرفہ نہیں ہے
چژہتا ہے جو اُپر اُترا ہی کرتا ہے
تدبیر کی تسبیح میں پِروتے رہو دانے
تقدیر کا شیشہ تو توٹا ہی کرتا ہے
6
دشمن بھی بدل دوں۔۔۔محمد علی وفا
چہرا بھی بدل دوں ، چلمن بھی بدل دوں
کیا کَہ رہےھو آج تم دشمن بھی بدل دوں
ہم تو کھلینگے سدا ،جنگل ہو یا صحرا
فطرت نہیں میری کہ گلشن بھی بدل دوں
بہتا رہا میں تو کبھی جنگل بیانباں میں
ممکین نھیں اے کہ پیرہن بھی بدل دوں
معصومیت کے برگ سے جسکا نکھار ہے
کس طرح ممکن ہے کہ بچپن بھی بدل دوں
میری وفا کا ساتھ رہےگا عدم میں بھی
میں وہ نہیں کے در کر مسکن بھی بدل دوں
7
*
شہیدانے یوکون کے نام۔۔۔۔۔محمدعلی ۔وفا
قربانیاں یہ آپکی ہرگیز نہ ھوگی رائگاں
ساغر ٹوٹیں ہیں کُچھ ہزارو میقدہ بن جائیں گے
جان دے دی آپنے راھ مین جاں جاناں کے اوپر
یہ شہادت آپکی منزل کا نشاں بن جائیں گے
چند دیے بجھ گےء کچھ غریب مکاں کے
ہزاوں گھروں میں ہدایت کے دیےء جل جائیں گے
*
8.
مستانے چل دےء۔۔۔۔محمد علی وفا
تیش دردوں کی بھرے پیمانے چل دےء
کھول کر اپنے جخم دیوانے چل دےء
سمت کا کچھ بھی ن تھا اُُن کو کوئ پتہ
دُھن میں اپنی کھڑے انجانے چل دےء
دور کچھ اپنے تماشہ بیں بن کر رہے
وقت کا خنجر چلا بیگانے چل دےء
ریت کا چھورا یپی چمکیلا سمندر
میکش رپے سر دھونتے میخانے چل دےء
اپنی خوشی سے آےہ تھے ن جاےنگے وفا
وقت کی چادر سمت مستانے چل دےء
9
بیمار تیرا دیکھ کر دستِ دُعا ہو جاءےگا
بیمار تیرا دیکھ کر دستِ دُعا ہو جاءےگا
ایک بار کا آنا تِرا بس دوا ہو جاءے گا
دِل کی یہ کشکول ہم نے کبھی کھولی نھیں
کویءھمیں دے نھ دے سبکا بھلا ہو جاءےگا
پھول پتھّر کانتے ھو یا بجلیوں کا خراج
جو بھی گیرےگا اس نشیمن پر ہوا ہو جاءےگا
یوں اشاروں کنایوں میں کہوگے کب تلک
جو زباں سے اپنی کہ دو گے تو کیا ہو جاءےگا
لوٹ لے جاو یہاں سے پھول پتّی شاخ و فل
یہ چمن اب کچھ دنوں میں ویراں ہو جاءےگا
شام کے کاندھے پہ رویا خُن کے آنسو سورج
طاریکیوں کی رات آےء گی تباھ ہو جاءےگا
ھمنے وفا وقت کی رسّی کبھی تھامی نہیں
کُچھ بھی کہیںگے زمانے سے گلاا ہو جاءے گا
Tarahi Misra:
جو زباں سے اپنی کہ دو گے تو کیا ہو جاءے گا
دردِ دل۔۔۔محمد علی وفا
دل بھرا ہے درد سے ِکسکو دکھایں چیر کر
ماملہ اپنے غمکا کیوں سناءے چینکھ کر
سب ہُےء مشروڑ جب سنا قصّہ غم
ایک چھوتی سی کہانی کیوںبڑہا یے کھینچ کر
جب سنبھل نا تھا ہمیں مانے نہیں اے دوستو
اب فسلتی راہ پرکیسےچلے ہم دیکھ کر
چار دیواری بنی قمت چکا کے بڑی
مل گیا گھرتو نیا گر زنگی کو بیچ کر
آنکھ کی قسمت کا تارا اب وفا چمکا سہی
مل گیا سرمہ کا پتّھر اب لگانا پیس کر
فریب کا بازار دیکھےء ۔۔محمدعلی وفا.
اُتھ گئ ہے آنکھ سے تلوار دیکھےء
بنتی ہے کسکے گلے کا ہار دیکھےء
. جب بھی ملے ہمیں بھُلے عُذَر وُ کہاں
اُنکا بِ مسالی یہ پیار دیکھےء.
راتیں بھی روتی رہی سایہ تلہ وہاں
دردوں سے بھرے چاند کا اسار دیکھےء.
اسود یہ مَلتا رَہا سورج لیل کو
اُسکی مکر فریب کا بازار دیکھےء.
کِس کِسکا شکوہ وفا کرتے ر ہیں یہاں
سب ہی یہاں پایے گےہ بمار دیکھےء
آئ نہ راس ہمکو۔۔محمدعلی وفا
آئ نہ راس ہمکو یہ موسم بہار کی
ہمتو غریب پتجہڑکے ویراں باغ میں پلے
ہمنے کہاں گل بھری کوئ شاخ بھی دیکھی
ہم تو دہکتی یہ صحر کی آگ میں جلے
.
کُہرام سے
کَیسے کٹی تیرے بغیر آرام سے
اب پی رہا ہہوں بس خیالی جام سے
میں کھو گیاتھا شہرکے صحرااوں میں
کسنے پُکارا آج مُجہکو نام سے
ہم تو چلے ٹہے بِنیازی چال سے
لو خواب کی چِریاں اُڑی ایک بام سے
لاوا بن کر چلا الل صُبح سورج
یہ تھم گیا تھک کر نشیلی شام سے
ترپا شہر بھیڑ کے صحرااوں میں
شور سرکوں پر ُاُگا کُہرام سے
خون کا چرچہ نہیں ہوا
شہرمیں خون کا چرچہ نہیں ہوا شاید
شوق خوں کشی ابھی پورا نہیں ہوا
سیہونیوں کی عادت ظلمت نہین جاتی
حیمیت کا عرب میں مُدّع نہیں ہوا
انسانیت کے باب سب بند ہو گےء
مسلم کیےنام کاابھی سودا نہیں ہوا
چاھے متادو چاہے اُسے بھاڑ میں دالو
دُنیا کی نظر میں کوئ رسوا نہیں ہوا
یہ گولیییاں بارود سب انکے لےء ھیں
یہ سوچتین ہیں انکا کوئ دلربا نہیں ہوا
ماردو بچُوں کو عورت کو جلادو
اہلے ایماں کادل ابھی زندہ نہیں ہوا
عربوں کے ھاتھ می پڑی سونے کی کنگنیں
اُنکا ابھی بھی خون پریشاں نہیں ہوا
ذلّت کے گھڑے میں ہے انکا مقُدر
کسی ایک کی آواز میں لرزاں نہیں ہوا
اتھو شباب عرب تم غیرت کی ہے پُکار
اس وقت جو سویا راھا دانہ نہیں ہوا
پُرانے جام پر ۔وَفا
قِسمت کِس کی تڑاشی تھی پُرانے جام پَر
پی گَےء سب مَیقَدے میں ایک تمہارے نام پَر
یہ شرارت آپکی بادل میں وابستہ رہی
گِررہی ے ِبجلِیاں ِدیکھو ہمارے بام پر
*
شکوہ پسند دِل کو اَب کون مناےء
ظالِمُ شَّفاک کو اب کون مِتاے۔
بیتہا دِےء ظالَم نےاب اَشقوں پر بھی پَہرے
ِکسکی مجال ہے کے ایک آنسو بہاےء
دارو رسن پر چَڑہ گیا اِک کلِمہ گو یارو
بیتہے ہیں سب اہلِ عرب اُنگلیآں دباےہ
غیَرت کا کوئ باب بھی باقی نہیں تُم میں
چَلتے ہو ناحق کی ایک ڈولی کو اُتھاےء
صَلاحُدّین کیا کوئ پیدا نہیں ہوگا
کمزوریےء ایمان کی جو زُلف سَواںرے
اولادے دجّالُ بُش بَیتھی ہے سینوں پے
اور پاس اب رَہ گَےء سَب کھوکھلے نارے
ہے،وَفاَ نادِمُ مغموم اور مَجبُر بھی بہُت
ربِّ کَریم ہے تُجھسے دُعاَ تو ہی بَچالے
*
خُنِ رواں دیکھا۔***۔محمد علی وفا
شدّتِ ِ پیاس بڑھاتے ہُےء صحرا دیکھا
نکلتا پہاڑسے دُبونے ہمیں دریا دیکھا
لذّتِ میکشی کا شوق تو تھا بھی کہاں
گےء جو میکدہ میں شور ایک بپا دیکھا
ملایا ھاتھ ہے اب رفیقوں۔رقیبوں نے
رنگ عدَُوت کا مہربانوں میں جواں دیکھا
مگسل میں تو اور مقتل میں بھی توہی رہا
نہ جانے دوست مینیں تُجھے کہاں کہاں دیکھا
بُزھ گیا آگ کا لاوا اِن آنکھوں سے وفا
پھر بھی جلتی ہُئ نبض پہ خُنِ رواں دیکھا
ہمارا تو چاہےء ۔۔ محمّدعلی وفا
کہنے کو بھی کوئ ہمارا تو چاہےء
تنکا ہی سہی کوئ سہارا تو چاہےء
حسرت بھری آنکھوں سے دیکھتیں رہیں
لوٹے ہوےء گلشن کا نذارہ تو چاہےء
مجھڈھار میں جانے کی ہمّت کہاں رہی
دوبے کہاں کوئ کنارا تو چاہےء
اچھّا ہوا یہ آپنے توڑے عہد پیماں
شکوہ کا کبھی کوئ اشارہ تو چاہےء
رنجش تو ہوئ ہےوفا گر بات کھل گئ
قسمت کے ھاتھ کا کوئ مارا تو چاہےء
جام سے نکلے_ محمد علی۔وفا
یہی تھی تمنُا قرُع ھمارے نام سے نکلے
ایک ایک قطرہ خون کا اس جام سے نکلے
سورج ہمارا دُبتا ہویہاں اُن کی وادی سے
اور چاند اُنکابس ہمارے بام سے نکلے
محمد علی۔وفا
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22nd January 2012, 07:54 AM
1
رستے جوان ہے۔۔۔محمدعلی وفا
کھندہر سا شہر ہو گیا رستے جوان ہے
ہے پرانی تختیاں سب اور نیے نام ہے
روتا رہا وہ باغ باں اُجڑی بہار پر
پتّے پتّے پر کُنندہ ایک بیان ہے
اُنکی نظر کا فاصلہ دوری نَ لا سکا
برسوں ہوئے اِس جخم کو پھر بھی جوان ہے
اب کیسے بُجھائےں اُسے کُچھ مشورہ تو دو
پانی میں لگی آگ اور اُسمین مکان ہے
ہونا تھا وہ ہو گیا اور ہم دیکھتے رہے
دینوں ایماں عزّت لوتی اور بھندھ زبان ہے
مظلوم ٹرپتا رہا دہلیز پر اُنکی
جان آخر دی جھاں دل کی دُکان ہے
1A
یے زندگی کا قافلہ ۔۔۔۔محمد علی ’وفا’’
سایہ ہماری رات کا پگھلا ہوا سا ہے
اپنا مقدّر بھی یہیاں بگڑا ہوا سا ہے
ٹُوٹی ہٰئ دوارکا سایہ غنیمت ہے
اپنا مکاں عرصہ ہوا اُجڑا ہوا سا ہے
شاید اُسے بھی مل گیا کوئ مہرباں
پلکوں اوپر پانی ذرا تھہرا ہوا سا ہے
ہر جائ منزلوں تلے تھہرے نہ کبھی ھم
یہ زندگی کا قافلہ اکھرا ہوا سا ہے
چلدو ’وفا’اس میقدہ سے دور ہی کہیں
شیشوں بھرا کردار بھی ٹوٹا ہوا سا ہے
1B
سودا نہیں کرتا۔۔۔محمد علی وفا
میں درد کو بازار میں بَیچا نہیں کرتا
جاگیر ہے یہ عمر کی سودا نہیں کرتا
فِسلا نہیں میں زندگی کے موژ پرکبھی
اُمّید کے خاڑوں پر رویا نہیں کرتا
عمرکا بہاو ہے جیسے بہے پانی
توٹی ہوئ مینہ سہی جوڑا نہیں کرتا
آزاد ہوں آزادی کا فندہ ہے گلے میں
میں ہر گلی میں آپکو دھُںدھا نہیں کرتا
بادل پر تو گھروںدے کیسے بنے وفا
میں ریت پر قصّہ کبھی لکھانہیں کرتا
2
گِلا تمسے نہیں ، اب تو رہا سارے زمانے سے
ہُےء سب خوش تصویر درد دیکھانے سے
یہاں پھرتے رہے ہم زخم اپنا چُھپاےء سے
کیا تشہیر کا سودا تونے کئ سو بہانے سے
ہماری رینگتی تنہائیوںکا حال نہ پوچھو
ہمارے باغ کا دامن بھڑا پایا ویرانے سے
کبھی پھاڑا غریباں کو کبھی خونِ جگر تپکا
گزرکیسے ہوئ پوچھو نہیں اب تو دہوانے سے
نہٰن منظور اب ہمکو ہمارے ظرف کا سودا
ملاہے یہ ہمیں جوہر ےہاں رب کے خزانے سے
ہمارے خون سے سینچا بڑی دقّت مُشقّت سے
گُلِستاں مِٹ نہیں سکتا باطل کے مٹانے سے
3
جام سےنکلے۔۔محمدعلی وفا
تمّناتھی کے قرع ہمارے نام سے نکلے
سبھی قطرے ہمارے خون کے اس جام سے نکلے
یہاں سُرج ہمارادوبتاہو اُن کی وادی میں
ادھر چاند اُنکا بس ہمارے بام سے نکلے
4
3 نایاب ھی نکلے ۔۔۔محمدعلیوفا
مفلس کے مقدر میں نایاب ھی نکلے
سب ستارے رات کو بتاب ھی نکلے
اکر سورج کی آنکھ میں زہر گھول دو
اس شہرکےسب بام سے ناساز ھی نکلے
تونے رچائ اب تلک خوب یہ سازش
مرجاے مزلوم نا کوئ بات ھی نکلے
اپنے سمجھ کے جنکو اپناےء تھے وفا
آستیں کے سب کے سب سانپ ھی نکلے
جس ِاینت پر ہم نے رچائ اُمّید کی منزل
وہ تووفا توتے ہوےء کچھ خواب ھی نکلے
ہو تا نہیں رفیق بھی خوش دیکھ کر وفا
پھر ہم رقیب سے کوئ اُمّید کیا رکھے
5
تقدیر کا شیشہ۔۔۔محمد علی وفا
رنگ بھی عجیب شئ ہے بدلا ہی کرتا ہے
دل کا بھی ایک رنگ ہے شکوہ ہی کرتا ہے
یہ لگے طاوص کے پر میں یا گرگت کے گلے
کوسینِ آب میں پڑا دھوکہ ہی کرتا ہے
چہرا بدلنے کی ضرورت ہے نھیں اُنکو
رنگ کا بادل ہے یہ پگھلا ہی کرتا ہے
افسوس کے سایہ تو گھتٹیں ہیں بژھٹیں ہیں
قسمت کا تارا بھی اُلجھاہی کرتا ہے
یہ سفر دو راہا ہے یک طرفہ نہیں ہے
چژہتا ہے جو اُپر اُترا ہی کرتا ہے
تدبیر کی تسبیح میں پِروتے رہو دانے
تقدیر کا شیشہ تو توٹا ہی کرتا ہے
6
دشمن بھی بدل دوں۔۔۔محمد علی وفا
چہرا بھی بدل دوں ، چلمن بھی بدل دوں
کیا کَہ رہےھو آج تم دشمن بھی بدل دوں
ہم تو کھلینگے سدا ،جنگل ہو یا صحرا
فطرت نہیں میری کہ گلشن بھی بدل دوں
بہتا رہا میں تو کبھی جنگل بیانباں میں
ممکین نھیں اے کہ پیرہن بھی بدل دوں
معصومیت کے برگ سے جسکا نکھار ہے
کس طرح ممکن ہے کہ بچپن بھی بدل دوں
میری وفا کا ساتھ رہےگا عدم میں بھی
میں وہ نہیں کے در کر مسکن بھی بدل دوں
7
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شہیدانے یوکون کے نام۔۔۔۔۔محمدعلی ۔وفا
قربانیاں یہ آپکی ہرگیز نہ ھوگی رائگاں
ساغر ٹوٹیں ہیں کُچھ ہزارو میقدہ بن جائیں گے
جان دے دی آپنے راھ مین جاں جاناں کے اوپر
یہ شہادت آپکی منزل کا نشاں بن جائیں گے
چند دیے بجھ گےء کچھ غریب مکاں کے
ہزاوں گھروں میں ہدایت کے دیےء جل جائیں گے
*
8.
مستانے چل دےء۔۔۔۔محمد علی وفا
تیش دردوں کی بھرے پیمانے چل دےء
کھول کر اپنے جخم دیوانے چل دےء
سمت کا کچھ بھی ن تھا اُُن کو کوئ پتہ
دُھن میں اپنی کھڑے انجانے چل دےء
دور کچھ اپنے تماشہ بیں بن کر رہے
وقت کا خنجر چلا بیگانے چل دےء
ریت کا چھورا یپی چمکیلا سمندر
میکش رپے سر دھونتے میخانے چل دےء
اپنی خوشی سے آےہ تھے ن جاےنگے وفا
وقت کی چادر سمت مستانے چل دےء
9
بیمار تیرا دیکھ کر دستِ دُعا ہو جاءےگا
بیمار تیرا دیکھ کر دستِ دُعا ہو جاءےگا
ایک بار کا آنا تِرا بس دوا ہو جاءے گا
دِل کی یہ کشکول ہم نے کبھی کھولی نھیں
کویءھمیں دے نھ دے سبکا بھلا ہو جاءےگا
پھول پتھّر کانتے ھو یا بجلیوں کا خراج
جو بھی گیرےگا اس نشیمن پر ہوا ہو جاءےگا
یوں اشاروں کنایوں میں کہوگے کب تلک
جو زباں سے اپنی کہ دو گے تو کیا ہو جاءےگا
لوٹ لے جاو یہاں سے پھول پتّی شاخ و فل
یہ چمن اب کچھ دنوں میں ویراں ہو جاءےگا
شام کے کاندھے پہ رویا خُن کے آنسو سورج
طاریکیوں کی رات آےء گی تباھ ہو جاءےگا
ھمنے وفا وقت کی رسّی کبھی تھامی نہیں
کُچھ بھی کہیںگے زمانے سے گلاا ہو جاءے گا
Tarahi Misra:
جو زباں سے اپنی کہ دو گے تو کیا ہو جاءے گا
دردِ دل۔۔۔محمد علی وفا
دل بھرا ہے درد سے ِکسکو دکھایں چیر کر
ماملہ اپنے غمکا کیوں سناءے چینکھ کر
سب ہُےء مشروڑ جب سنا قصّہ غم
ایک چھوتی سی کہانی کیوںبڑہا یے کھینچ کر
جب سنبھل نا تھا ہمیں مانے نہیں اے دوستو
اب فسلتی راہ پرکیسےچلے ہم دیکھ کر
چار دیواری بنی قمت چکا کے بڑی
مل گیا گھرتو نیا گر زنگی کو بیچ کر
آنکھ کی قسمت کا تارا اب وفا چمکا سہی
مل گیا سرمہ کا پتّھر اب لگانا پیس کر
فریب کا بازار دیکھےء ۔۔محمدعلی وفا.
اُتھ گئ ہے آنکھ سے تلوار دیکھےء
بنتی ہے کسکے گلے کا ہار دیکھےء
. جب بھی ملے ہمیں بھُلے عُذَر وُ کہاں
اُنکا بِ مسالی یہ پیار دیکھےء.
راتیں بھی روتی رہی سایہ تلہ وہاں
دردوں سے بھرے چاند کا اسار دیکھےء.
اسود یہ مَلتا رَہا سورج لیل کو
اُسکی مکر فریب کا بازار دیکھےء.
کِس کِسکا شکوہ وفا کرتے ر ہیں یہاں
سب ہی یہاں پایے گےہ بمار دیکھےء
آئ نہ راس ہمکو۔۔محمدعلی وفا
آئ نہ راس ہمکو یہ موسم بہار کی
ہمتو غریب پتجہڑکے ویراں باغ میں پلے
ہمنے کہاں گل بھری کوئ شاخ بھی دیکھی
ہم تو دہکتی یہ صحر کی آگ میں جلے
.
کُہرام سے
کَیسے کٹی تیرے بغیر آرام سے
اب پی رہا ہہوں بس خیالی جام سے
میں کھو گیاتھا شہرکے صحرااوں میں
کسنے پُکارا آج مُجہکو نام سے
ہم تو چلے ٹہے بِنیازی چال سے
لو خواب کی چِریاں اُڑی ایک بام سے
لاوا بن کر چلا الل صُبح سورج
یہ تھم گیا تھک کر نشیلی شام سے
ترپا شہر بھیڑ کے صحرااوں میں
شور سرکوں پر ُاُگا کُہرام سے
خون کا چرچہ نہیں ہوا
شہرمیں خون کا چرچہ نہیں ہوا شاید
شوق خوں کشی ابھی پورا نہیں ہوا
سیہونیوں کی عادت ظلمت نہین جاتی
حیمیت کا عرب میں مُدّع نہیں ہوا
انسانیت کے باب سب بند ہو گےء
مسلم کیےنام کاابھی سودا نہیں ہوا
چاھے متادو چاہے اُسے بھاڑ میں دالو
دُنیا کی نظر میں کوئ رسوا نہیں ہوا
یہ گولیییاں بارود سب انکے لےء ھیں
یہ سوچتین ہیں انکا کوئ دلربا نہیں ہوا
ماردو بچُوں کو عورت کو جلادو
اہلے ایماں کادل ابھی زندہ نہیں ہوا
عربوں کے ھاتھ می پڑی سونے کی کنگنیں
اُنکا ابھی بھی خون پریشاں نہیں ہوا
ذلّت کے گھڑے میں ہے انکا مقُدر
کسی ایک کی آواز میں لرزاں نہیں ہوا
اتھو شباب عرب تم غیرت کی ہے پُکار
اس وقت جو سویا راھا دانہ نہیں ہوا
پُرانے جام پر ۔وَفا
قِسمت کِس کی تڑاشی تھی پُرانے جام پَر
پی گَےء سب مَیقَدے میں ایک تمہارے نام پَر
یہ شرارت آپکی بادل میں وابستہ رہی
گِررہی ے ِبجلِیاں ِدیکھو ہمارے بام پر
*
شکوہ پسند دِل کو اَب کون مناےء
ظالِمُ شَّفاک کو اب کون مِتاے۔
بیتہا دِےء ظالَم نےاب اَشقوں پر بھی پَہرے
ِکسکی مجال ہے کے ایک آنسو بہاےء
دارو رسن پر چَڑہ گیا اِک کلِمہ گو یارو
بیتہے ہیں سب اہلِ عرب اُنگلیآں دباےہ
غیَرت کا کوئ باب بھی باقی نہیں تُم میں
چَلتے ہو ناحق کی ایک ڈولی کو اُتھاےء
صَلاحُدّین کیا کوئ پیدا نہیں ہوگا
کمزوریےء ایمان کی جو زُلف سَواںرے
اولادے دجّالُ بُش بَیتھی ہے سینوں پے
اور پاس اب رَہ گَےء سَب کھوکھلے نارے
ہے،وَفاَ نادِمُ مغموم اور مَجبُر بھی بہُت
ربِّ کَریم ہے تُجھسے دُعاَ تو ہی بَچالے
*
خُنِ رواں دیکھا۔***۔محمد علی وفا
شدّتِ ِ پیاس بڑھاتے ہُےء صحرا دیکھا
نکلتا پہاڑسے دُبونے ہمیں دریا دیکھا
لذّتِ میکشی کا شوق تو تھا بھی کہاں
گےء جو میکدہ میں شور ایک بپا دیکھا
ملایا ھاتھ ہے اب رفیقوں۔رقیبوں نے
رنگ عدَُوت کا مہربانوں میں جواں دیکھا
مگسل میں تو اور مقتل میں بھی توہی رہا
نہ جانے دوست مینیں تُجھے کہاں کہاں دیکھا
بُزھ گیا آگ کا لاوا اِن آنکھوں سے وفا
پھر بھی جلتی ہُئ نبض پہ خُنِ رواں دیکھا
ہمارا تو چاہےء ۔۔ محمّدعلی وفا
کہنے کو بھی کوئ ہمارا تو چاہےء
تنکا ہی سہی کوئ سہارا تو چاہےء
حسرت بھری آنکھوں سے دیکھتیں رہیں
لوٹے ہوےء گلشن کا نذارہ تو چاہےء
مجھڈھار میں جانے کی ہمّت کہاں رہی
دوبے کہاں کوئ کنارا تو چاہےء
اچھّا ہوا یہ آپنے توڑے عہد پیماں
شکوہ کا کبھی کوئ اشارہ تو چاہےء
رنجش تو ہوئ ہےوفا گر بات کھل گئ
قسمت کے ھاتھ کا کوئ مارا تو چاہےء
جام سے نکلے_ محمد علی۔وفا
یہی تھی تمنُا قرُع ھمارے نام سے نکلے
ایک ایک قطرہ خون کا اس جام سے نکلے
سورج ہمارا دُبتا ہویہاں اُن کی وادی سے
اور چاند اُنکابس ہمارے بام سے نکلے
محمد علی۔وفا
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आपका मस्कन दिखलाएं---मुहम्मदली वफा -
1st March 2012, 09:23 AM
आपका मस्कन दिखलाएं---मुहम्मदली वफा
आओ तुम्हें गुजरातका मंजर दिखलायें
कब्रस्तांमें हम आपका मदफन दिखलायें
वॉट तो दे दो ! फिरसे ये मंजर दोहरांये
आपको अपना असली मस्कन दिखलाएं
बच्चों, बूढो, मां बहेनो को हमने मारा है
आओ तुम्हें हम आपका मस्कन दिखलाएं
एक एक कबरमें बीसोंको सुलाया है हमने
लहूसे नहाता आपका मकफन दिखलाएं
तुमने अभी जो देखा है वो कुछ भी नहीं
असली चहेरेका घनौना मधुवन दिखलाएं
आओ तुम्हें गुजरातका मंजर दिखलायें
अभी हमारे बहूत एजंडे बाकी है
वॉट तो देदो! खूनके फंडे बाकी है
29फेब्रु2012 [/size]
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निकल आये---मुहम्मदअली वफा -
11th July 2012, 10:33 AM
निकल आये---मुहम्मदअली वफा
जलते हुए जज्बात निकल आये
तेरी ही कोई बात निकल आये
तलाश हो उम्मीद के सुरजकी
दर्दकी कोई रात निकल आये
गरद्नको छूपाये रखे फूलों से हम
कोई खंजर बपा हाथ निकल आये
हमने पाला हो हमदर्दीसे जिसे
वो आस्तींका सांप निकल आये.
हम छूपाये फिरते हैं बरसों से वफा
तुम्हारी आंखोंसे वो बात निकल आये
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शेखादम आबुवालाकी उर्दू शायरी—-मुहम्मदअली -
10th September 2012, 01:58 PM
शेखादम आबुवालाकी उर्दू शायरी—-मुहम्मदअली वफा
मैंने पकडातो है तेरा दामन
जान निकलेगी अब मेरे तनसे
एक टूकडा है मेरे कफन का
मेरे हाथोमें दामन नहीं है
* * * *
कोई आये न आये हमें क्या
आज आदम उठाना है डेरा
हम भटकते मुसाफिर जा ठहरे
अपन कोई नशेमन नहीं है
* * * *
सिलसिला फितरतका तोडा है न तोडा जायेगा
मौतके कदमोंपे भी तुम जिन्दगी बनके रहो
* * * *
रिश्ते न कभी ये टूटेंगे
सायें है न तन से छूटेंगे
दीवाने चले तो साथ उनके
वीराने भी गुलशन तक पहुंचे
* * * *
पहली नजरका प्यार
तो पहेलाही प्यार है
फीर ईस तरह मरेंगे
हमें कूछ पता नहीं
* * * *
मौत मन्झिलकी दास्तां होगी
जिन्दगी गर्दे कारवां होगी
* * * *
जिन्दगीने मौतसे परदा किया
ऐ कफन तुने तो शरमिन्दा किया
* * * *
मौतको ढुंढा किये थे हम कहां
वो थी हाथोंकी लकीरों में छिपी
* * * *
(सौजन्य:मोतीबाईनो शेखो पृ.64)
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