शिकायत कैसी -
13th August 2014, 12:07 PM
कुर्सियों के साथ बदलती हुई इबादत कैसी!
या ख़ुदा नाम पर तेरे ये सियासत कैसी!
वक़्त भी बदलता रहता है, वक़्त के साथ ,
वक़्त के साथ जो न बदले, वो रिवायत कैसी !!
मुझे गांव की मिट्टी से दूर करती है ,
ये नौकरी, ये शोहरतें, ये लियाक़त कैसी !!
मै ही मुजरिम हूँ, गवाह भी, मुवक्किल भी,
बन्द कमरे मे चल रही है अदालत कैसी !!
तेरे बन्दों का क़द एक सा नही दिखता,
सरहदों मे बंटी दुनीया की शबाहत कैसी !!
मेरे हुजरे कि चादरें भी मैली हैँ,
तेरि महफ़िल मेँ, तख़्तों की वक़ालत कैसी !!
क़ाबिले तारीफ़ हैं शोख़िया यूँ तो तेरी,
दुखा दे दिल जो किसी का, वो शरारत कैसी !!
मयकदे मेँ आज कितने ही जाम खाली हैं,
साक़ी , रिन्दों से तेरी ये बग़ावत कैसी !!
हम जिये जा रहे हैं तेरे तस्सवुर में,
अब रुख-ए-तस्वीर पे, नक़ब की हिफाज़त कैसी !!
कीजिये इक़रार, या के दिल तोड़ दें,
बेवजह दिल को जलाने में शराफत कैसी !!
सरे महफ़िल हाज़िर हैं तेरे हिसार मेँ,
खामोशियों में तड़पने में रक़ाबत कैसी !!
उम्र भर झूमते रहे , खुमार-ए -हुस्न में,
खिज़ा आई तो अब आईने से शिकायत कैसी !!
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