मेरी प्रिय कविताएँ / Meree Priy Kavitaaye.n
मेरी प्रिय कविताएँ
मेरे प्यारे दोस्तों: नमस्कार और आदाब यहाँ आप प्रसिद्ध कवियों की कविताएँ और रचनाएँ बांट सकते हैं जिस से बहतेरीन कविताओं के माध्यम से अलग अलग एहसासों से रु-ब-रु होने का मौक़ा मिलेँगा आपका ~ धवल ************************** Mere Pyaare dosto.n: Namaskaar aur Aadaab! yahaa.n aap prasiddh kaviyo.n ki kavitaaye.n aur rachanaaye.n baaNT sakte hai.n! jiss sey behterin kavitaao.n ke maadyam se alag alag ehsaaso.n se ru-ba-ru hone kaa mauqaa mile.ngaa! aapka ~Dhaval |
Aaj Shukhi Main Kitni, Pyaare.... !
’आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!’
चिर अतीत में ’आज’ समाया, उस दिन का सब साज समाया, किंतु प्रतिक्षण गूँज रहे हैं नभ में वे कुछ शब्द तुम्हारे! ’आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!’ लहरों में मचला यौवन था, तुम थीं, मैं था, जग निर्जन था, सागर में हम कूद पड़े थे भूल जगत के कूल किनारे! ’आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!’ साँसों में अटका जीवन है, जीवन में एकाकीपन है, ’सागर की बस याद दिलाते नयनों में दो जल-कण खारे!’ ’आज सुखी मैं कितनी, प्यारे!’ हरिवंशराय बच्चन |
Acchi Kitaab ... !!!
अच्छी किताब
एक अच्छी किताब अन्धेरी रात में नदी के उस पार किसी दहलीज़ पर टिमटिमाते दीपक की ज्योति है दिल के उदास काग़ज़ पर भावनाओं का झिलमिलाता मोती है जहाँ लफ़्ज़ों में चाहत के सुर बजते है ये वो साज़ है इसे तनहाइयों में पढ़ो ये खामोशी की आवाज़ है एक बेहतर किताब हमारे जज़्बात में उम्मीद की तरह घुलकर कभी हँसाती, कभी रुलाती है रिश्तों के मेलों में बरसों पहले बिछड़े मासूम बचपन से मिलाती है एक संजीदा किताब हमारे सब्र को आज़माती है किताब को ग़ौर से पढ़ो इसके हर पन्ने पर ज़िन्दगी मुस्कराती है देवमणि पांडेय |
Ajnabii !!!
अजनबी
अजनबी रास्तों पर पैदल चलें कुछ न कहें अपनी-अपनी तन्हाइयाँ लिए सवालों के दायरों से निकलकर रिवाज़ों की सरहदों के परे हम यूँ ही साथ चलते रहें कुछ न कहें चलो दूर तक तुम अपने माजी का कोई ज़िक्र न छेड़ो मैं भूली हुई कोई नज़्म न दोहराऊँ तुम कौन हो मैं क्या हूँ इन सब बातों को बस, रहने दें चलो दूर तक अजनबी रास्तों पर पैदल चलें। दीप्ति नवल (Actress) |
Quote:
~Dhaval |
ab to path yahee hai
जिंदगी ने कर लिया स्वीकार,
अब तो पथ यही है| अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है, एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है, यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है, क्यों करूँ आकाश की मनुहार , अब तो पथ यही है | क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए, एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए, एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए, आज हर नक्षत्र है अनुदार, अब तो पथ यही है| यह लड़ाई, जो की अपने आप से मैंने लड़ी है, यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढ़ी है, यह पहाड़ी पाँव क्या चढ़ते, इरादों ने चढ़ी है, कल दरीचे ही बनेंगे द्वार, अब तो पथ यही है | ~dushyant kumar |
Aankhon Ki Khushboo .... !!
आँखों की ख़ुशबू
आँखों की ख़ुशबू को छुआ नहीं महसूस किया जाता है दिल को बहलावा नहीं दर्द दिया जाता है दर्द जो है इश्क़ में वह ही ख़ुदा है सबका दर्द के पहलू में यार को सजदा किया जाता है आँखों की ख़ुशबू को छुआ नहीं महसूस किया जाता है… तुम याद आ रहे हो और तन्हाई के सन्नाटे हैं किन-किन दर्दों के बीच ये लम्हे काटे हैं अब साँसें बिखरी हुई उधड़ी हुई रहती हैं हमने साँसों के धागे रफ़्ता-रफ़्ता यादों में बाटे हैं आँखों की ख़ुशबू को छुआ नहीं महसूस किया जाता है… इस जनम में हम मिले हैं क्योंकि हमें मिलना है तुम्हारे प्यार का फूल मेरे दिल में खिलना है दूरियाँ तेरे-मेरे बीच कुछ ज़रूर हैं सनम मगर यह फ़ासला भी एक रोज़ ज़रूर मिटना है आँखों की ख़ुशबू को छुआ नहीं महसूस किया जाता है… विनय प्रजापति 'नज़र' |
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Thanks 4 sharing........... ! |
अधर मधु किसने किया सृजन?
अधर मधु किसने किया सृजन?
अधर मधु किसने किया सृजन? तरल गरल! रची क्यों नारी चिर निरुपम? रूप अनल! अगर इनसे रहना वंचित यही विधान, दिए विधि ने तप संयम हित न क्यों दृढ़ प्राण ? सुमित्रानंदन पंत |
अधूरा मकान
अधूरा मकान
उस रास्ते से गुज़रते हुए अक्सर दिखाई दे जाता था वर्षों से अधूरा बना पड़ा वह मकान वह अधूरा था और बिरादरी से अलग कर दिए आदमी की तरह दिखता था उस पर छत नहीं डाली गई थी कई बरसातों के ज़ख़्म उस पर दिखते थे वह हारे हुए जुआड़ी की तरह खड़ा था उसमें एक टूटे हुए आदमी की परछाईं थी हर अधूरे बने मकान में एक अधूरी कथा की गूँज होती है कोई घर यूँ ही नहीं छूट जाता अधूरा कोई ज़मीन यूँ ही नहीं रह जाती बांझ उस अधूरे बने पड़े मकान में एक सपने के पूरा होते -होते उसके धूल में मिल जाने की आह थी अभाव का रुदन था उसके खालीपन में एक चूके हुए आदमी की पीड़ा का मर्सिया था एक ऐसी ज़मीन जिसे आंगन बनना था जिसमें धूप आनी थी जिसकी चारदीवारी के भीतर नम हो आये कपड़ों को सूखना था सूर्य को अर्ध्य देती स्त्री की उपस्थिति से गौरवान्वित होना था अधूरे मकान का एहसास मुझे सपने में भी डरा देता है उसे अनदेखा करने की कोशिश में भर कर उस रास्ते से गुज़रती हूँ पर जानती हूँ अधूरा मकान सिर्फ़ अधूरा ही नहीं होता अधूरे मकान में कई मनुष्यों के सपनों और छोटी-छोटी ख्वाहिशों के बिखरने का इतिहास दफ़्न होता है । संध्या गुप्ता |
puShp ki abhilaaShaa
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Pushp ki Abhilasha ------------------------------------------------------- Chaah nahin main surbala ke gehano mein gootha jaun Chaah nahin premi maala mein bindh pyaari ko lalchaun Chaah nahin samraaton ke shav par he hari daala jaun Chaah nahin devon ke sir par chadhun bhaagya par ithlaun Mujhe thod lena ban-mali, us path par dena tum phenk Matra-bhoomi par sheesh chadhane, jis path jayen veer anek. Written By: Makhanlal Chaturvedi |
मकान
मकान
- कैफी आजमी (Kaifi Azmi) आज की रात बहुत गरम हवा चलती है आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी । सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी । ये जमीन तब भी निगल लेने पे आमादा थी पाँव जब टूटी शाखों से उतारे हम ने । इन मकानों को खबर है ना मकीनों को खबर उन दिनों की जो गुफाओ मे गुजारे हम ने । हाथ ढलते गये सांचे में तो थकते कैसे नक्श के बाद नये नक्श निखारे हम ने । कि ये दीवार बुलंद, और बुलंद, और बुलंद, बाम-ओ-दर और जरा, और सँवारा हम ने । आँधियाँ तोड़ लिया करती थी शामों की लौं जड़ दिये इस लिये बिजली के सितारे हम ने । बन गया कसर तो पहरे पे कोई बैठ गया सो रहे खाक पे हम शोरिश-ऐ-तामिर लिये । अपनी नस-नस में लिये मेहनत-ऐ-पेयाम की थकान बंद आंखों में इसी कसर की तसवीर लिये । दिन पिघलाता है इसी तरह सारों पर अब तक रात आंखों में खटकतीं है स्याह तीर लिये । आज की रात बहुत गरम हवा चलती है आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी । सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी । |
पर्वतारोही
मैं पर्वतारोही हूँ।
शिखर अभी दूर है। और मेरी साँस फूलनें लगी है। मुड़ कर देखता हूँ कि मैनें जो निशान बनाये थे, वे हैं या नहीं। मैंने जो बीज गिराये थे, उनका क्या हुआ? किसान बीजों को मिट्टी में गाड़ कर घर जा कर सुख से सोता है, इस आशा में कि वे उगेंगे और पौधे लहरायेंगे । उनमें जब दानें भरेंगे, पक्षी उत्सव मनानें को आयेंगे। लेकिन कवि की किस्मत इतनी अच्छी नहीं होती। वह अपनें भविष्य को आप नहीं पहचानता। हृदय के दानें तो उसनें बिखेर दिये हैं, मगर फसल उगेगी या नहीं यह रहस्य वह नहीं जानता । पर्वतारोही -रामधारी सिंह दिनकर. |
छ्न्द प्रसंग नहीं हैं हम जीवन के महाकाव्य हैं केवल छ्न्द प्रसंग नहीं हैं। कंकड़-पत्थर की धरती है अपने तो पाँवों के नीचे हम कब कहते बन्धु! बिछाओ स्वागत में मखमली गलीचे रेती पर जो चित्र बनाती ऐसी रंग-तरंग नहीं है। तुमको रास नहीं आ पायी क्यों अजातशत्रुता हमारी छिप-छिपकर जो करते रहते शीतयुद्ध की तुम तैयारी हम भाड़े के सैनिक लेकर लड़ते कोई जंग नहीं हैं। कहते-कहते हमें मसीहा तुम लटका देते सलीब पर हंसें तुम्हारी कूटनीति पर कुढ़ें या कि अपने नसीब पर भीतर-भीतर से जो पोले हम वे ढोल-मृदंग नहीं है। तुम सामुहिक बहिष्कार की मित्र! भले योजना बनाओ जहाँ-जहाँ पर लिखा हुआ है नाम हमारा, उसे मिटाओ जिसकी डोर हाथ तुम्हारे हम वह कटी पतंग नहीं है। - देवेन्द्र शर्मा इन्द्र |
मधुशाला
मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला, प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला, पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा, सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१। प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला, एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला, जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका, आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२। प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला, अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला, मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता, एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३। भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला, कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला, कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ! पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४। मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला, भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला, उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ, अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५। मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला, 'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला, अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ - 'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'। ६। चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला! 'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला, हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे, किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७। मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला, हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला, ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का, और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८। मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला, अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला, बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे, रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।९। सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला, सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला, बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है, चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०। जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला, वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला, डाँट डपट मधुविक्रेता की ध्वनित पखावज करती है, मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।।११। मेंहदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला, अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला, पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले, इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला।।१२। हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला, अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला, बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले, पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।।१३। लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला, फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला, दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं, पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४। जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला, जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला, ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है, जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।१५। बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला, देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला, 'होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले' ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।१६। धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला, मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला, पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका, कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।१७। लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला, हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला, हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा, व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।१८। बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला, रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला' 'और लिये जा, और पीये जा', इसी मंत्र का जाप करे' मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।१९। बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला, बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला, लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें, रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।२०। बड़े बड़े पिरवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला, हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला, राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए, जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१। सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला, सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ' हाला, धूमधाम औ' चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें, झगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२। भुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, मदचंचल प्याला, छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला, पटे कहाँ से, मधु औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं, जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३। बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला, पी लेने पर तो उसके मुह पर पड़ जाएगा ताला, दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की, विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४। हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला, वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला, स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने, पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५। एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला, एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला, दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो, दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६। नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला, कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला, जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही, जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७। बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला, बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला, बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने, बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८। सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला, मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला, मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की, कहा करो 'जय राम' न मिलकर, कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९। सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला, बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला, झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर, बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०। तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला, सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला, मज्ञल्तऌा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए, फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१। अधरों पर हो कोई भी रस जिहवा पर लगती हाला, भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला, हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती, आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२। पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला, भरी हुई है जिसके अंदर पिरमल-मधु-सुरिभत हाला, माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं, झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३। प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला, छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला, छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४। मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला, हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ, छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५। साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला, तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला, अगणित कर-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते, प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६। उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला, बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला, जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७। अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला, पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८। किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला, किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९। साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला, जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला, योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए, देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०। वादक बन मधु का विक्रेता लाया सुर-सुमधुर-हाला, रागिनियाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला, विक्रेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में, पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१। चित्रकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला, जिसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रंगी हाला, मन के चित्र जिसे पी-पीकर रंग-बिरंगे हो जाते, चित्रपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला।।४२। घन श्यामल अंगूर लता से खिंच खिंच यह आती हाला, अरूण-कमल-कोमल कलियों की प्याली, फूलों का प्याला, लोल हिलोरें साकी बन बन माणिक मधु से भर जातीं, हंस मज्ञल्तऌा होते पी पीकर मानसरोवर मधुशाला।।४३। हिम श्रेणी अंगूर लता-सी फैली, हिम जल है हाला, चंचल नदियाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला, कोमल कूर-करों में अपने छलकाती निशिदिन चलतीं, पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।४४। धीर सुतों के हृदय रक्त की आज बना रक्तिम हाला, वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला, अति उदार दानी साकी है आज बनी भारतमाता, स्वतंत्रता है तृषित कालिका बलिवेदी है मधुशाला।।४५। दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला, ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला, कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को? शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६। पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला, सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला, मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता, मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।।४७। सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला, सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला, शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।४८। बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला, गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला, शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।४९। मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला, एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला, दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते, बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०। कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला, बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला, एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले, देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!।५१। और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला, इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला, कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद मन्दिर में घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।।५२। आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला, आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला, होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर जहाँ अभी हैं मन्िदर मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला।।५३। यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला, ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला, मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साकीबालाएँ, किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।।५४। सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला, द्रोणकलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला, वेदिवहित यह रस्म न छोड़ो वेदों के ठेकेदारों, युग युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला।।५५। वही वारूणी जो थी सागर मथकर निकली अब हाला, रंभा की संतान जगत में कहलाती 'साकीबाला', देव अदेव जिसे ले आए, संत महंत मिटा देंगे! किसमें कितना दम खम, इसको खूब समझती मधुशाला।।५६। कभी न सुन पड़ता, 'इसने, हा, छू दी मेरी हाला', कभी न कोई कहता, 'उसने जूठा कर डाला प्याला', सभी जाति के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं, सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।।५७। श्रम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला, सबक बड़ा तुम सीख चुके यदि सीखा रहना मतवाला, व्यर्थ बने जाते हो हिरजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे, ठुकराते हिर मंिदरवाले, पलक बिछाती मधुशाला।।५८। एक तरह से सबका स्वागत करती है साकीबाला, अज्ञ विज्ञ में है क्या अंतर हो जाने पर मतवाला, रंक राव में भेद हुआ है कभी नहीं मदिरालय में, साम्यवाद की प्रथम प्रचारक है यह मेरी मधुशाला।।५९। बार बार मैंने आगे बढ़ आज नहीं माँगी हाला, समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला, हो तो लेने दो ऐ साकी दूर प्रथम संकोचों को, मेरे ही स्वर से फिर सारी गूँज उठेगी मधुशाला।।६०। कल? कल पर विश्वास किया कब करता है पीनेवाला हो सकते कल कर जड़ जिनसे फिर फिर आज उठा प्याला, आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है, कल की हो न मुझे मधुशाला काल कुटिल की मधुशाला।।६१। आज मिला अवसर, तब फिर क्यों मैं न छकूँ जी-भर हाला आज मिला मौका, तब फिर क्यों ढाल न लूँ जी-भर प्याला, छेड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी-भर कर लूँ, एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला।।६२। आज सजीव बना लो, प्रेयसी, अपने अधरों का प्याला, भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला, और लगा मेरे होठों से भूल हटाना तुम जाओ, अथक बनू मैं पीनेवाला, खुले प्रणय की मधुशाला।।६३। सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कन्चन का प्याला छलक रही है जिसमंे माणिक रूप मधुर मादक हाला, मैं ही साकी बनता, मैं ही पीने वाला बनता हूँ जहाँ कहीं मिल बैठे हम तुम़ वहीं गयी हो मधुशाला।।६४। दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर ऊब उठी साकीबाला, भरकर अब खिसका देती है वह मेरे आगे प्याला, नाज़, अदा, अंदाजों से अब, हाय पिलाना दूर हुआ, अब तो कर देती है केवल फ़र्ज़ -अदाई मधुशाला।।६५। छोटे-से जीवन में कितना प्यार करुँ, पी लूँ हाला, आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जानेवाला', स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी, बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला।।६६। क्या पीना, निर्द्वन्द न जब तक ढाला प्यालों पर प्याला, क्या जीना, निरंिचत न जब तक साथ रहे साकीबाला, खोने का भय, हाय, लगा है पाने के सुख के पीछे, मिलने का आनंद न देती मिलकर के भी मधुशाला।।६७। मुझे पिलाने को लाए हो इतनी थोड़ी-सी हाला! मुझे दिखाने को लाए हो एक यही छिछला प्याला! इतनी पी जीने से अच्छा सागर की ले प्यास मरुँ, सिंधँु-तृषा दी किसने रचकर बिंदु-बराबर मधुशाला।।६८। क्या कहता है, रह न गई अब तेरे भाजन में हाला, क्या कहता है, अब न चलेगी मादक प्यालों की माला, थोड़ी पीकर प्यास बढ़ी तो शेष नहीं कुछ पीने को, प्यास बुझाने को बुलवाकर प्यास बढ़ाती मधुशाला।।६९। लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला, लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला, लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का, लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला।।७०। कर ले, कर ले कंजूसी तू मुझको देने में हाला, दे ले, दे ले तू मुझको बस यह टूटा फूटा प्याला, मैं तो सब्र इसी पर करता, तू पीछे पछताएगी, जब न रहूँगा मैं, तब मेरी याद करेगी मधुशाला।।७१। ध्यान मान का, अपमानों का छोड़ दिया जब पी हाला, गौरव भूला, आया कर में जब से मिट्टी का प्याला, साकी की अंदाज़ भरी झिड़की में क्या अपमान धरा, दुनिया भर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।।७२। क्षीण, क्षुद्र, क्षणभंगुर, दुर्बल मानव मिटटी का प्याला, भरी हुई है जिसके अंदर कटु-मधु जीवन की हाला, मृत्यु बनी है निर्दय साकी अपने शत-शत कर फैला, काल प्रबल है पीनेवाला, संसृति है यह मधुशाला।।७३। प्याले सा गढ़ हमें किसी ने भर दी जीवन की हाला, नशा न भाया, ढाला हमने ले लेकर मधु का प्याला, जब जीवन का दर्द उभरता उसे दबाते प्याले से, जगती के पहले साकी से जूझ रही है मधुशाला।।७४। अपने अंगूरों से तन में हमने भर ली है हाला, क्या कहते हो, शेख, नरक में हमें तपाएगी ज्वाला, तब तो मदिरा खूब खिंचेगी और पिएगा भी कोई, हमें नमक की ज्वाला में भी दीख पड़ेगी मधुशाला।।७५। यम आएगा लेने जब, तब खूब चलूँगा पी हाला, पीड़ा, संकट, कष्ट नरक के क्या समझेगा मतवाला, क्रूर, कठोर, कुटिल, कुविचारी, अन्यायी यमराजों के डंडों की जब मार पड़ेगी, आड़ करेगी मधुशाला।।७६। यदि इन अधरों से दो बातें प्रेम भरी करती हाला, यदि इन खाली हाथों का जी पल भर बहलाता प्याला, हानि बता, जग, तेरी क्या है, व्यर्थ मुझे बदनाम न कर, मेरे टूटे दिल का है बस एक खिलौना मधुशाला।।७७। याद न आए दूखमय जीवन इससे पी लेता हाला, जग चिंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला, शौक, साध के और स्वाद के हेतु पिया जग करता है, पर मै वह रोगी हूँ जिसकी एक दवा है मधुशाला।।७८। गिरती जाती है दिन प्रतिदन प्रणयनी प्राणों की हाला भग्न हुआ जाता दिन प्रतिदन सुभगे मेरा तन प्याला, रूठ रहा है मुझसे रूपसी, दिन दिन यौवन का साकी सूख रही है दिन दिन सुन्दरी, मेरी जीवन मधुशाला।।७९। यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला, पी न होश में फिर आएगा सुरा-विसुध यह मतवाला, यह अंितम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है, पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला।८०। ढलक रही है तन के घट से, संगिनी जब जीवन हाला पत्र गरल का ले जब अंतिम साकी है आनेवाला, हाथ स्पर्श भूले प्याले का, स्वाद सुरा जीव्हा भूले कानो में तुम कहती रहना, मधु का प्याला मधुशाला।।८१। मेरे अधरों पर हो अंितम वस्तु न तुलसीदल प्याला मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला, मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।८२। मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आंसू में हाला आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला, दे मुझको वो कान्धा जिनके पग मद डगमग होते हों और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३। और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला, प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना पीने वालांे को बुलवा कऱ खुलवा देना मधुशाला।।८४। नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला काम ढालना, और ढालना सबको मदिरा का प्याला, जाति प्रिये, पूछे यदि कोई कह देना दीवानों की धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।।८५। ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला, पंिडत अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला, और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला, किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६। यम ले चलता है मुझको तो, चलने दे लेकर हाला, चलने दे साकी को मेरे साथ लिए कर में प्याला, स्वर्ग, नरक या जहाँ कहीं भी तेरा जी हो लेकर चल, ठौर सभी हैं एक तरह के साथ रहे यदि मधुशाला।।८७। पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों - साकी बाला, नित्य पिलानेवाला प्याला, पी जानेवाली हाला, साथ इन्हें भी ले चल मेरे न्याय यही बतलाता है, कैद जहाँ मैं हूँ, की जाए कैद वहीं पर मधुशाला।।८८। शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला, 'और, और' की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला, कितनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता! कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला।।८९। जो हाला मैं चाह रहा था, वह न मिली मुझको हाला, जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न मिला मुझको प्याला, जिस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न मिला साकी, जिसके पीछे था मैं पागल, हा न मिली वह मधुशाला!।९०। देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक-सी हाला, देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला, 'बस अब पाया!'- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे, किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।।९१। कभी निराशा का तम घिरता, छिप जाता मधु का प्याला, छिप जाती मदिरा की आभा, छिप जाती साकीबाला, कभी उजाला आशा करके प्याला फिर चमका जाती, आँखिमचौली खेल रही है मुझसे मेरी मधुशाला।।९२। 'आ आगे' कहकर कर पीछे कर लेती साकीबाला, होंठ लगाने को कहकर हर बार हटा लेती प्याला, नहीं मुझे मालूम कहाँ तक यह मुझको ले जाएगी, बढ़ा बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।९३। हाथों में आने-आने में, हाय, फिसल जाता प्याला, अधरों पर आने-आने में हाय, ढुलक जाती हाला, दुनियावालो, आकर मेरी किस्मत की ख़ूबी देखो, रह-रह जाती है बस मुझको मिलते-िमलते मधुशाला।।९४। प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला, प्राप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला, दूर न इतनी हिम्मत हारुँ, पास न इतनी पा जाऊँ, व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला।।९५। मिले न, पर, ललचा ललचा क्यों आकुल करती है हाला, मिले न, पर, तरसा तरसाकर क्यों तड़पाता है प्याला, हाय, नियति की विषम लेखनी मस्तक पर यह खोद गई 'दूर रहेगी मधु की धारा, पास रहेगी मधुशाला!'।९६। मदिरालय में कब से बैठा, पी न सका अब तक हाला, यत्न सहित भरता हूँ, कोई किंतु उलट देता प्याला, मानव-बल के आगे निर्बल भाग्य, सुना विद्यालय में, 'भाग्य प्रबल, मानव निर्बल' का पाठ पढ़ाती मधुशाला।।९७। किस्मत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला, ढूँढ़ रहा था मैं मृगनयनी, किस्मत में थी मृगछाला, किसने अपना भाग्य समझने में मुझसा धोखा खाया, किस्मत में था अवघट मरघट, ढूँढ़ रहा था मधुशाला।।९८। उस प्याले से प्यार मुझे जो दूर हथेली से प्याला, उस हाला से चाव मुझे जो दूर अधर से है हाला, प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में! पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला।।९९। साकी के पास है तिनक सी श्री, सुख, संपित की हाला, सब जग है पीने को आतुर ले ले किस्मत का प्याला, रेल ठेल कुछ आगे बढ़ते, बहुतेरे दबकर मरते, जीवन का संघर्ष नहीं है, भीड़ भरी है मधुशाला।।१००। साकी, जब है पास तुम्हारे इतनी थोड़ी सी हाला, क्यों पीने की अभिलषा से, करते सबको मतवाला, हम पिस पिसकर मरते हैं, तुम छिप छिपकर मुसकाते हो, हाय, हमारी पीड़ा से है क्रीड़ा करती मधुशाला।।१०१। साकी, मर खपकर यदि कोई आगे कर पाया प्याला, पी पाया केवल दो बूंदों से न अधिक तेरी हाला, जीवन भर का, हाय, पिरश्रम लूट लिया दो बूंदों ने, भोले मानव को ठगने के हेतु बनी है मधुशाला।।१०२। जिसने मुझको प्यासा रक्खा बनी रहे वह भी हाला, जिसने जीवन भर दौड़ाया बना रहे वह भी प्याला, मतवालों की जिहवा से हैं कभी निकलते शाप नहीं, दुखी बनाय जिसने मुझको सुखी रहे वह मधुशाला!।१०३। नहीं चाहता, आगे बढ़कर छीनूँ औरों की हाला, नहीं चाहता, धक्के देकर, छीनूँ औरों का प्याला, साकी, मेरी ओर न देखो मुझको तिनक मलाल नहीं, इतना ही क्या कम आँखों से देख रहा हूँ मधुशाला।।१०४। मद, मदिरा, मधु, हाला सुन-सुन कर ही जब हूँ मतवाला, क्या गति होगी अधरों के जब नीचे आएगा प्याला, साकी, मेरे पास न आना मैं पागल हो जाऊँगा, प्यासा ही मैं मस्त, मुबारक हो तुमको ही मधुशाला।।१०५। क्या मुझको आवश्यकता है साकी से माँगूँ हाला, क्या मुझको आवश्यकता है साकी से चाहूँ प्याला, पीकर मदिरा मस्त हुआ तो प्यार किया क्या मदिरा से! मैं तो पागल हो उठता हूँ सुन लेता यदि मधुशाला।।१०६। देने को जो मुझे कहा था दे न सकी मुझको हाला, देने को जो मुझे कहा था दे न सका मुझको प्याला, समझ मनुज की दुर्बलता मैं कहा नहीं कुछ भी करता, किन्तु स्वयं ही देख मुझे अब शरमा जाती मधुशाला।।१०७। एक समय संतुष्ट बहुत था पा मैं थोड़ी-सी हाला, भोला-सा था मेरा साकी, छोटा-सा मेरा प्याला, छोटे-से इस जग की मेरे स्वर्ग बलाएँ लेता था, विस्तृत जग में, हाय, गई खो मेरी नन्ही मधुशाला!।१०८। बहुतेरे मदिरालय देखे, बहुतेरी देखी हाला, भाँित भाँित का आया मेरे हाथों में मधु का प्याला, एक एक से बढ़कर, सुन्दर साकी ने सत्कार किया, जँची न आँखों में, पर, कोई पहली जैसी मधुशाला।।१०९। एक समय छलका करती थी मेरे अधरों पर हाला, एक समय झूमा करता था मेरे हाथों पर प्याला, एक समय पीनेवाले, साकी आलिंगन करते थे, आज बनी हूँ निर्जन मरघट, एक समय थी मधुशाला।।११०। जला हृदय की भट्टी खींची मैंने आँसू की हाला, छलछल छलका करता इससे पल पल पलकों का प्याला, आँखें आज बनी हैं साकी, गाल गुलाबी पी होते, कहो न विरही मुझको, मैं हूँ चलती फिरती मधुशाला!।१११। कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला, कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला, कितनी जल्दी साकी का आकर्षण घटने लगता है, प्रात नहीं थी वैसी, जैसी रात लगी थी मधुशाला।।११२। बूँद बूँद के हेतु कभी तुझको तरसाएगी हाला, कभी हाथ से छिन जाएगा तेरा यह मादक प्याला, पीनेवाले, साकी की मीठी बातों में मत आना, मेरे भी गुण यों ही गाती एक दिवस थी मधुशाला।।११३। छोड़ा मैंने पथ मतों को तब कहलाया मतवाला, चली सुरा मेरा पग धोने तोड़ा जब मैंने प्याला, अब मानी मधुशाला मेरे पीछे पीछे फिरती है, क्या कारण? अब छोड़ दिया है मैंने जाना मधुशाला।।११४। यह न समझना, पिया हलाहल मैंने, जब न मिली हाला, तब मैंने खप्पर अपनाया ले सकता था जब प्याला, जले हृदय को और जलाना सूझा, मैंने मरघट को अपनाया जब इन चरणों में लोट रही थी मधुशाला।।११५। कितनी आई और गई पी इस मदिरालय में हाला, टूट चुकी अब तक कितने ही मादक प्यालों की माला, कितने साकी अपना अपना काम खतम कर दूर गए, कितने पीनेवाले आए, किन्तु वही है मधुशाला।।११६। कितने होठों को रक्खेगी याद भला मादक हाला, कितने हाथों को रक्खेगा याद भला पागल प्याला, कितनी शक्लों को रक्खेगा याद भला भोला साकी, कितने पीनेवालों में है एक अकेली मधुशाला।।११७। दर दर घूम रहा था जब मैं चिल्लाता - हाला! हाला! मुझे न मिलता था मदिरालय, मुझे न मिलता था प्याला, मिलन हुआ, पर नहीं मिलनसुख लिखा हुआ था किस्मत में, मैं अब जमकर बैठ गया हँू, घूम रही है मधुशाला।।११८। मैं मदिरालय के अंदर हूँ, मेरे हाथों में प्याला, प्याले में मदिरालय बिंिबत करनेवाली है हाला, इस उधेड़-बुन में ही मेरा सारा जीवन बीत गया - मैं मधुशाला के अंदर या मेरे अंदर मधुशाला!।११९। किसे नहीं पीने से नाता, किसे नहीं भाता प्याला, इस जगती के मदिरालय में तरह-तरह की है हाला, अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सभी पी मदमाते, एक सभी का मादक साकी, एक सभी की मधुशाला।।१२०। वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला, जिसमें मैं बिंिबत-प्रतिबंिबत प्रतिपल, वह मेरा प्याला, मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है, भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१। मतवालापन हाला से ले मैंने तज दी है हाला, पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग दिया प्याला, साकी से मिल, साकी में मिल अपनापन मैं भूल गया, मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२। मदिरालय के द्वार ठोंकता किस्मत का छंछा प्याला, गहरी, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला, कितनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया! बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३। कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला, कहँा गया स्वपिनल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला! पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना? फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४। अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला, अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला, फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उज्ञल्तऌार पाया - अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५। 'मय' को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, 'हाला' 'मीना' को 'मधुपात्र' दिया 'सागर' को नाम गया 'प्याला', क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंिडत जी 'मय-महिफल' अब अपना ली है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६। कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला, कितने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला, कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साकी, फिर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला।।१२७। जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला, जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला, जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है, जितना ही जो रिसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।१२८। जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला, जिस कर को छूू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा प्याला, आँख चार हों जिसकी मेरे साकी से दीवाना हो, पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९। हर जिहवा पर देखी जाएगी मेरी मादक हाला हर कर में देखा जाएगा मेरे साकी का प्याला हर घर में चर्चा अब होगी मेरे मधुविक्रेता की हर आंगन में गमक उठेगी मेरी सुरिभत मधुशाला।।१३०। मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला, मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला, मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा, जिसकी जैसी रुिच थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१। यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला, यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला, किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही, नहीं-नहीं किव का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२। कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला, कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला! पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा, कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३। विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला, शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई, जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४। बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला, किलत कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला, मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को, विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५। पिरिशष्ट से स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला, स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला, पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है, स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला। मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला, मेरे तन के लोहू में है पचहज्ञल्तऌार प्रतिशत हाला, पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर, मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला। बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला, बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला, पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला। पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला। - बच्चन |
dhaynyawaad nareSh jee :)
~Dhaval |
' Chain Of Pearls...! '
Mother, I shall weave a chain of pearls for thy neck
with my tears of sorrow. The stars have wrought their anklets of light to deck thy feet, but mine will hang upon thy breast. Wealth and fame come from thee and it is for thee to give or to withhold them. But this my sorrow is absolutely mine own, and when I bring it to thee as my offering thou rewardest me with thy grace. Shree Rabindranath Tagore Ji |
Yeh koi famous writter ki likhi huyi rachna nahi hai ...... per kafi prabhavit karne wali rachna hia isliye main yahaan aapse shar kar raha hun Yeh Bhagwat Geeta ke UpdeshoN per nirdharit rachna hai........ :) Kabhi Rulaayein, Kabhi Hasaayein Prabhu Ki Leela Prabhu Hi Jaane, Kabhi Bhayanak Yudh Ladein Kabhi Bhakton Ke Dukh Dur Karein Gita Gyan Dilaaya Aur Mahabharat Hua Samaapt Laute Tab Balram Ke Sang Dwarika Dwarikanaath Pehle Pehle Kya Karte Hai Prabhu Dwarika Aake, Jagad-Pita Khud Maat-Pita Ki Ashish Lene Jaate Bade Pyar Se Woh Vasudev Ke Charnon Sis Jhukaaye Aur Vasudev Shri Vaasudev Ko Liye Gale Se Lagaaye Maat Devaki Krishna Ko Dekhe Hriday Liye Lagaai Makhan Mishri Mahaprabhu Ko Haath Se Apne Khilaai Ajab Nirala Dhrishya Ye Bhakton, Dekho Jagad Ke Data Geeta Gyan Dilaake Phir, Maiya Ka Dil Behlaata Bada Hua Hai Beta Aapka Boli Rukmini Rani Haskar Chede Prabhu Ko Par Maa Ki Mamta Pehchaani Bachpan Bhar Nahi Dekha Maa Ne Toh Ab Prem Lutaaye Nirmal Prem Maiya Ka Paakar Prabhu Ko Anand Aaye Bade Bhai Balram Hai Kehte Baat Meri Sun Maai Saara Pyaar Kanhaiya Ko Deti Mere Liye Kya Bachaai Haath Mein Haath Liye Beton Ka Nainan Neer Bhare Pyar Mein Tab Vasudev Pita Balram Se Kehne Lage Hum Dono Chahe Jitna Bhi Mamta Prem Lutaayen Woh Vastu Toh Aisi Hai Kabhi Kam Na Hone Paayen Devaki Boli Sach Hai Beta Baat Jo Kehte Baba Waise Bhi Hirday Mein Hamare Prem Pada Hai Zyaada Tum Dono Ke Aane Se Pehle Bichhad Gaye Tere Bhai Unke Bhagya Ki Mamta Bhi Tum Dono Par Barsaai Devaki Aur Vasudev Ki Ankhiyan Ashru Se Bhar Aaye Guzara Kal Itna Dukhdaai Ab Tak Yaad Rulaaye Kanha Ke Avtaar Samay Woh Base The Karagaar Ankhiyan Aage Aankh Ke Taare Kans Ne Daale Maar Bal Samay Shri Krishna Kanhaai Bhi Rehte The Dur Putra Viyog Ke Dukh Mein Bichaare Maat Pita Majboor Bhakton Ke Aasoon Kabhi Sahe Nahi Sakte Hai Bhagwan Karuna Mein Rachte Hai Kaisi Leela Karuna Nidhaan Ab Mat Rona Maiya Baba, Pal Mein Vaapas Aata Hoon Jaise Guru Ke Khaatir Kinha, Baalak Aapke Laata Hoon Tat Kshan Hi Paatal Chale Balram Aur Krishna Kanhaai Raja Bali Se Bhet Huyi Aur Saari Katha Sunaai Vaastav Mein Yeh Chhe Hai Devta Muni Ke Shraap Ke Maare Unko Mukti Dilaani Thi Maa Devaki Ke Sahaare Janam Samay Jo Doodh Piya Toh Hua Woh Mahaprashad Us Hi Ke Dwaara Milegi Mukti Mere Bhaiyon Ko Aaj Bali Raaj Phir Un Sabko Hai Baalak Roop Mein Laate Maat Pita Se Aathon Bhai Saath Mein Milne Jaate Madhur Milan Ye Bhaya Bada, Sabki Aankhon Mein Paani, Dheere Se Phir Bhagavan Se Yeh Pooche Rukmini Rani Yeh Toh Hai Tere Pyaare Prabhu Phir Dinhe Dukhde Kaahe Sabse Pyaare Bhakt Mere Hai Tabhi Toh Dukh Seh Paaye Maine Har Dukh Mein Saath Diya Aur Di Sehne Ki Shakti Inko Dekh Ke Seekhega Jag Kya Hoti Hai Bhakti Sachhe Bhakt Mere Hai Aise Devaki Aur Vasudev Ke Jaise Dukh Sehkar Vishwaas Na Haare Tabhi Toh Pragate Unke Dwaare Devaki Aur Vasudev Sam, Bhakti Ke Adarsh Bhagvat Mahapuran Mein Hi Dete Hai Darsh Sukh Mein Dukh Mein Karte Rahe, Tera Hi Gungaan Humko Bhi Prabhu Dedo Aisi Bhakti Ka Vardaan Maat Pita Phir Gad Gad Hokar Prabhu Ke Charan Gire Rokar Unka Dhanyavaad Woh Dono Karne Lage Jagadpita Khud Beta Bankar Paas Hamare Aaye Yehi Nahi, Jeevan Ke Sab Dukh Sukh Mein Badal Kar Laaye Aisi Bhent Wohi De Sakta Jo Hai Jeevan Data Tum Ho Laal Hamare Kanha Yaan Ho Hamre Maat Pita Prem Kare Jinse Govinda Gopala Madhusudhan Unke Bhaagya Mein Hi Hoti Aisi Meethi Uljhan Kanha Ne Tab Unhe Uthaaya Kiya Bada Sanmaan Charan Nahin, Hirday Mein Mere Aap Dono Ka Sthaan Chaahe Mujhe Tum Beta Kaho Chaahe Kehdo Bhagwaan Main Tera Aur Tum Ho Mere Param Satya Yehi Jaan Shri Krishna Ki Aisi Hai Leela Bhakton Ka Jeevan Banaate Rangeela Kaatke Moh Maya Ke Bandhan Khud Se Unko Jodte Mohan Unke Naam Se Naam Milaakar Kehlaate Hai Devakinandan Jai Ho Teri Devakinandan Jai Ho Teri Devakinandan |
Very Impressive......Sameer Ji........bahut umdaa kavita se ru-ba-ru karaya aapne.........sampur kavita ke saath saath...
saar toh bahut hi badiya raha Shri Krishna Ki Aisi Hai Leela Bhakton Ka Jeevan Banaate Rangeela Kaatke Moh Maya Ke Bandhan Khud Se Unko Jodte Mohan Unke Naam Se Naam Milaakar Kehlaate Hai Devakinandan Jai Ho Teri Devakinandan Jai Ho Teri Devakinandan Thanks 4 Sharing....... ! |
लेकिन कवि की किस्मत
इतनी अच्छी नहीं होती। वह अपनें भविष्य को आप नहीं पहचानता। हृदय के दानें तो उसनें बिखेर दिये हैं, मगर फसल उगेगी या नहीं यह रहस्य वह नहीं जानता । Its too good ........dhaval ji ! thanks 4 Nice Sharing .............! |
जीवन की आपाधापी में
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में, हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा, आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा? फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में, क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी, जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा, जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी, जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला, जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था, मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी, जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी, उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी, जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा, उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे, क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है, यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी; अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया, वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको, जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया, यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली, जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला। जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ, है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है, कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे, प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है, मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का। पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा - नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले, अनवरत समय की चक्की चलती जाती है, मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं, कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है, ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के इस एक और पहलू से होकर निकल चला। जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। ~Harivansh Rai Bachchan. |
क्या गाऊँ जो मैं तेरे मन को भा जाऊँ।
प्राची के वातायन पर चढ़ प्रात किरन ने गाया, लहर-लहर ने ली अँगड़ाई बंद कमल खिल आया, मेरी मुस्कानों से मेरा मुख न हुआ उजियाला, आशा के मैं क्या तुमको राग सुनाऊँ। क्या गाऊँ जो मैं तेरे मन को भा जाऊँ। हरिवंशराय बच्चन |
एक यही अरमान गीत बन, प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ जड़ जग के उपहार सभी हैं, धार आँसुओं की बिन वाणी, शब्द नहीं कह पाते तुमसे मेरे मन की मर्म कहानी, उर की आग, राग ही केवल कंठस्थल में लेकर चलता, एक यही अरमान गीत बन, प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ जान-समझ मैं तुमको लूँगा-- यह मेरा अभिमान कभी था, अब अनुभव यह बतलाता है-- मैं कितना नादान कभी था; योग्य कभी स्वर मेरा होगा, विवश उसे तुम दुहराओगे? बहुत यही है अगर तुम्हारे अधरों से परिचित हो जाऊँ। एक यही अरमान गीत बन, प्रिय, तुमको अर्पित हो जाऊँ हरिवंशराय बच्चन |
रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने। फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में और चारों ओर दुनिया सो रही थी, तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी, मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा, रात आधी खींच कर मेरी हथेली रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने। एक बिजली छू गई, सहसा जगा मैं, कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में, इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू बह रहे थे इस नयन से उस नयन में, मैं लगा दूँ आग इस संसार में है प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर, जानती हो, उस समय क्या कर गुज़रने के लिए था कर दिया तैयार तुमने! रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने। प्रात ही की ओर को है रात चलती औ’ उजाले में अंधेरा डूब जाता, मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी, खूबियों के साथ परदे को उठाता, एक चेहरा-सा लगा तुमने लिया था, और मैंने था उतारा एक चेहरा, वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने। रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने। और उतने फ़ासले पर आज तक सौ यत्न करके भी न आये फिर कभी हम, फिर न आया वक्त वैसा, फिर न मौका उस तरह का, फिर न लौटा चाँद निर्मम, और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ, क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं-- बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने। रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था 'प्यार' तुमने। हरिवंशराय बच्चन |
उस पार न जाने क्या होगा
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का, लहरालहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का, कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो, बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का, तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो, उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है, जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है, स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे, मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है; ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जाएँगे; तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! प्याला है पर पी पाएँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको, इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको, कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा, करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको? कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं, उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये, वे भार दिए धर कंधों पर, जो रो-रोकर हमने ढोए; महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा, उर में ऐसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सोए; अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूर कठिन को कोस चुके; उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! संसृति के जीवन में, सुभगे ऐसी भी घड़ियाँ आएँगी, जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जाएँगी, जब निज प्रियतम का शव, रजनी तम की चादर से ढक देगी, तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी कितने दिन खैर मनाएगी! जब इस लंबे-चौड़े जग का अस्तित्व न रहने पाएगा, तब हम दोनो का नन्हा-सा संसार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! ऐसा चिर पतझड़ आएगा कोयल न कुहुक फिर पाएगी, बुलबुल न अंधेरे में गागा जीवन की ज्योति जगाएगी, अगणित मृदु-नव पल्लव के स्वर ‘मरमर’ न सुने फिर जाएँगे, अलि-अवली कलि-दल पर गुंजन करने के हेतु न आएगी, जब इतनी रसमय ध्वनियों का अवसान, प्रिये, हो जाएगा, तब शुष्क हमारे कंठों का उद्गार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! सुन काल प्रबल का गुरु-गर्जन निर्झरिणी भूलेगी नर्तन, निर्झर भूलेगा निज ‘टलमल’, सरिता अपना ‘कलकल’ गायन, वह गायक-नायक सिन्धु कहीं, चुप हो छिप जाना चाहेगा, मुँह खोल खड़े रह जाएँगे गंधर्व, अप्सरा, किन्नरगण; संगीत सजीव हुआ जिनमें, जब मौन वही हो जाएँगे, तब, प्राण, तुम्हारी तंत्री का जड़ तार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! उतरे इन आखों के आगे जो हार चमेली ने पहने, वह छीन रहा, देखो, माली, सुकुमार लताओं के गहने, दो दिन में खींची जाएगी ऊषा की साड़ी सिन्दूरी, पट इन्द्रधनुष का सतरंगा पाएगा कितने दिन रहने; जब मूर्तिमती सत्ताओं की शोभा-सुषमा लुट जाएगी, तब कवि के कल्पित स्वप्नों का श्रृंगार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है, फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है; मैं आज चला तुम आओगी कल, परसों सब संगीसाथी, दुनिया रोती-धोती रहती, जिसको जाना है, जाता है; मेरा तो होता मन डगडग, तट पर ही के हलकोरों से! जब मैं एकाकी पहुँचूँगा मँझधार, न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! हरिवंशराय बच्चन |
बच्चा
औरत के सिर पर गठरी है कमर पर बच्चा मर्द हाथ में बक्सा लटकाये है बच्चा रो रहा है लगातार हाथ-पाँव पटक रहा बार-बार औरत के समझाने मर्द के झुँझलाने के बावजूद वह पैर-पैर चलना चाहता है और गठरी अपने सिर पर उठाना चाहता है। इन्दु जैन |
सिसकते आब में किस की सदा है
सिसकते आब में किस की सदा है कोई दरिया की तह में रो रहा है सवेरे मेरी इन आँखों ने देखा ख़ुदा चरो तरफ़ बिखरा हुआ है समेटो और सीने में छुपा लो ये सन्नाटा बहुत फैला हुआ है पके गेंहू की ख़ुश्बू चीखती है बदन अपना सुनेहरा हो चला है हक़ीक़त सुर्ख़ मछली जानती है समन्दर कैसा बूढ़ा देवता है हमारी शाख़ का नौ-ख़ेज़ पत्ता हवा के होंठ अक्सर चूमता है मुझे उन नीली आँखों ने बताया तुम्हारा नाम पानी पर लिखा है बशीर बद्र |
रात के साथ रात लेटी थी
रात के साथ रात लेटी थी सुबह एक पालने में रोती थी याद की बर्फपोश टहनी पर एक गिलहरी उदास बैठी थी मैं ये समझा के लौट आए तुम धूप कल इतनी उजली उजली थी कितने शादाब, कितने दिलकश थे जब नदी रोज हमसे मिलती थी एक कुर्ते के बाएँ कोने पर प्यार की सुर्ख तितली बैठी थी कितनी हल्की कमीज़ पहने हुए सुबह अंगड़ाई लेके बैठी थी बशीर बद्र |
Naresh Jee AadaaB!
Bashir Badra sahab ki KavitayeN humare saath bantne ka bahut bahut shukriyaa......... :) Aur Indu jain sahab ki bhi kavita ka saar samjhkar bahut achcha laga ek prerna jagi hai mann meiN ke mata pita kii hum bhi achche se sahyta kare aur unka haath batayeN....... :) Thanks again........ :) |
Ji........हरिवंशराय बच्चन ji ki जीवन की आपाधापी में.... meri bahut pasandida kavita rahi hai.....nice sharing.... !
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आईना चेहरा मुझे छूकर ज़रा देखो- तुम्हारा आईना हूँ मैं। मुझे भी चोट लगती है कि शीशे का बना हूँ मैं। तुम्हारी निस्ब्तों के साथ मेरा दिल बहलता है कभी सन्दल महकता है कभी लावा पिघलता है चुनौती हूँ, कोई मुठभेड़ हूँ या सामना हूँ मैं। तुम्हारे रंग के छींटे मेरा मौसम बदलते हैं लचीली डालियों पर मोगरे के फूल खिलते हैं पहाडी़ मन्दिरों का जादुई संगीत हूँ आराधना हूँ मैं। कभी जो जख़्म से मजलूम का चेहरा उभरता है हमारी सोच का ख़ुशरंग शीराज़ा बिखरता है कटाए हाथ बायाँ औ’ अँगूठा दाहिना हूँ मैं उमाशंकर तिवारी |
नयनों ने मन के द्वारे पर स्वप्न सजाए हैं
नयनों ने मन के द्वारे पर स्वप्न सजाए हैं सागर चिंतित हुआ देखकर सूखी हुई नदी किंकर्तव्यविमूढ़ बन रही फिर भी आज सदी अम्मा ने उलझे प्रश्नों के हल बतलाए हैं कोरे काग़ज़ का सदियों से यह इतिहास रहा मौन साधकर सदा लेखनी का ही दास रहा मुनिया ने कुछ रंग-बिरंगे चित्र बनाए हैं निराकार मन की होती ज्यों कोई थाह नहीं अन्तहीन नभ में वैसे ही निश्चित राह नहीं नन्हीं चिड़िया ने उड़ने को पर फैलाए हैं योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ |
अंदाजों का गणित
रसोईघरों में तीन सौ साठ अंशों की व्यस्तता के फलक में हर लम्हा-हर एक छोटे से कोण में मौजूद दिखतीं स्त्रियाँ नमक-मिर्च, शक्कर, हल्दी-धनिया और मसालों की खुशबुओं का अनुपात चुटकियों में अपने अंदाज से साधती वह भी गुनगुनाते हुए बदस्तूर चाहे बच्चों की भूख-प्यास का समय हो या मर्दों की तलब या बुज़ुर्गों के खाँसने में छुपे हुए इशारे इन सबके अर्थ समाहित थे उनके अंदाजों की दिव्य-दृष्टि में सारी स्त्रियों के अंदर अंदाज की मशीन हमेशा ठीक-ठाक काम करती रही और तो और उसमें लगातार संसाधित होते रहे चूल्हे की आँच के तापमान से लेकर मौसमों के पूर्वानुमान तक के आँकड़े इस तरह तय समय पर आते रहे एक के बाद एक वसंत इस धरती पर और धीरे-धीरे भरता गया आकाश स्त्रियों के अंदाज से बने रंगों के इंद्रधनुष से कई-कई बार तो हैरानी होती कैसे कभी थर्मामीटर और माइक्रोवेव-ओवन जैसे कई उपकरण भी हुए फेल परदे के पीछे रहकर महसूस करके अंदाज लगा लेने के उस नायाब हुनर के आगे जो गुँजाता था व्योम में सधे हुए हाथ के करिश्मे का गान कहना मुश्किल कहाँ से प्रवेश करती थी सटीक अंदाजों की अजस्र धारा अपने-आप सास-माँ से लेकर तो बहू-बेटी तक की देहों के भीतर अनंत काल से दुनिया के बारे में कोई कहती नज़र से पहचानती हैं हम सबको कोई कहती आवाज़ के लहज़े से कोई कहती चाल-ढाल से कोई कहती पता नहीं कैसे मगर हाँ अपने-आप हो जाता है अंदाजा यही आख़िरी बात जो समीकरण है अपने-आप लग जाने वाले अंदाजों के गणित का इसी में दुनिया के ख़ूबसूरत बने होने का राज़ छुपा हुआ है । राग तेलंग |
Itni achhi achhi kavitaayein share karne ke liye aap sabhi ko bahut bahut dhanyavaad.:)
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अनंत यात्रा
अपनी कहानियों में मैंने उतारा तुम्हारे चरित्र को उभार नहीं पाई उसमें तुम्हारा व्यक्तित्व। बांधना चाहा कविताओं में रूप तुम्हारा पर शब्दों के दायरे में न आ सका तुम्हारा मन इस बार रंगों और तूलिका से उकेर दी मैंने तुम्हारी देह असफलता ही मेरी नियति है तभी सूनी है वह तुम्हारी आत्मा के बिन आकांक्षा पारे |
मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ
मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ अपने प्रकाश की रेखा तम के तट पर अंकित है निःसीम नियति का लेखा देने वाले को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर पल भर सुख भी देखा फिर पल भर दुख भी देखा। किस का आलोक गगन से रवि शशि उडुगन बिखराते? किस अंधकार को लेकर काले बादल घिर आते? उस चित्रकार को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर देखा है चित्रों को बन-बनकर मिट-मिट जाते। फिर उठना, फिर गिर पड़ना आशा है, वहीं निराशा क्या आदि-अन्त संसृति का अभिलाषा ही अभिलाषा? अज्ञात देश से आना, अज्ञात देश को जाना, अज्ञात अरे क्या इतनी है हम सब की परिभाषा? पल-भर परिचित वन-उपवन, परिचित है जग का प्रति कन, फिर पल में वहीं अपरिचित हम-तुम, सुख-सुषमा, जीवन। है क्या रहस्य बनने में? है कौन सत्य मिटने में? मेरे प्रकाश दिखला दो मेरा भूला अपनापन। भगवतीचरण वर्मा |
स्मृति
स्मृति
उस नैनरस के स्मरण भर से , मेरे भाव बादल बन गए, अश्रु झिलमिला उठे और, स्वप्न काजल बन गए। पाथेय पर आशाएं बिखरी, लगा सूर्य क्षितिज से झाँकने, देख पथ के जुगनू,नभ के तारे, कुछ सोचकर, कुछ आंकने। अपने आलिंगन में कर लिया, जब वायु ने सुगंध को, आश्रय मिला तेरे ह्रदय का, मेरे मन स्वछन्द को। अब भी है अंकित ,इस दृष्टि में, वो कोमल छवि,वो नैनरस, समय के पाथेय से, चुरा रखा है मैंने हर दिवस... - चेतना पंत |
' Yaha Dharti Kitna Deti Hai...! '
Written By SumitraNandan Pant Ji...!
http://www.kavitakosh.org/kk/images/...andan_pant.jpg मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे, सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे, रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा! पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा, बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!- सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये! मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक बाल-कल्पना के अपलर पाँवडडे बिछाकर मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे, ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था! अर्द्धशती हहराती निकल गयी है तबसे! कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने, ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई; सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन! औ\' जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर, मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे- भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हो! मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को, और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन! किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आँगन में टहल रहा था,- तब सहसा, मैने देखा उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से! देखा-आँगन के कोने में कई नवागत छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं! छांता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की, या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी- जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे- डिम्ब तोड़कर निकले चिडियों के बच्चों से! निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता- सहसा मुझे स्मरण हो आया,-कुछ दिन पहिले बीज सेम के मैने रोपे थे आँगन में, और उन्हीं से बौने पौधो की यह पलटन मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से, नन्हें नाटे पैर पटक, बढती जाती है! तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ, हरे-भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे! बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा, और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,- मैं अवाक् रह गया-वंश कैसे बढ़ता है! छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छीटे झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से, चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से! ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ फूटी! कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ,- पतली चौड़ी फलियाँ! उफ उनकी क्या गिनती! लम्बी-लम्बी अँगुलियों - सी नन्हीं-नन्हीं तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी, झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती, सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी! आः इतनी फलियाँ टूटी, जाड़ो भर खाई, सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के जाने-अनजाने सब लोगों में बँटबाई बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई !- कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ! यह धरती कितना देती है! धरती माता कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को! नही समझ पाया था मैं उसके महत्व को,- बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर! रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ। इसमें सच्ची समता के दाने बोने है; इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है, इसमें मानव-ममता के दाने बोने है,- जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें मानवता की, - जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ- हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे। :) |
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