है जुस्तजू कि खूब से है ख़ूबतर कहाँ अब ठैरती -
16th December 2016, 07:18 AM
है जुस्तजू कि खूब से है ख़ूबतर कहाँ
अब ठैरती है देखिये जाकर नज़र कहाँ
या रब इस इख़्तलात का अंजाम हो बख़ैर
था उसको हमसे रब्त मगर इस क़दर कहाँ
हम जिसपे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और
आलम में तुझसे लाख सही , तू मगर कहाँ
होती नहीं क़ुबूल दुआ तर्क ए इश्क़ की
दिल चाहता न हो तो ज़ुबां में असर कहाँ
इक उम्र चाहिए कि गवारा हो नीश ए उम्र
रखी है आज लज़्ज़त ए ज़ख़्म ए जिगर कहाँ
' हाली ' निशात ए नग़्मा ओ मय ढूँढते हो अब
आए हो वक़्त सुबह रहे रात भर कहाँ
"हाली" साहेब
अर्ज मेरी एे खुदा क्या सुन सकेगा तू कभी
आसमां को बस इसी इक आस में तकते रहे
madhu..
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