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Originally Posted by Taish
ज़माने की फितरत हुई कुछ नयी है,
सही अब ग़लत और ग़लत ही सही है…
किसी को नहीं अब किसी की पड़ी है,
यही ज़िंदगी है तो क्या ज़िंदगी है…
गयी बीत सादियां यहां जाने कितनी,
मिज़ाजे सितमगर वही का वही है…
करें बातें मुझसे वो अब ज़िंदगी की,
बची जब मेरे पास बस दो घड़ी है…
कभी एक दिल था, अभी लाखों टुकड़े,
तेरे सदके सीने में रौनक बड़ी है…
यहाँ मैं हूँ तालाब सूखा हुआ इक,
वहाँ तू उफ़नती, मचलती नदी है…
मुझे चाहतों की नज़र से न देखो,
मुहब्बत की मुझे अब ज़रूरत नही है…
जो कल तक मेरा हमसफ़र, हमनवा था,
वही आज क्यूं लग रहा अजनबी है…
बदलता है मौसम, बदलते सभी हैं,
मगर ‘तैश’ वो जो बदलता नहीं है…
—तैश
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Waah kya baat bahot hee umda ghazal taish sahab..
Bade Dino baad apko padhne ka mauka Mila achcha laga
Daad qubool Karein...
Khoobsoorat ashaar..Waah!!
मुझे चाहतों की नज़र से न देखो,
मुहब्बत की मुझे अब ज़रूरत नही है…
Ik is Sher me thoda typing error hai shayad dekh lein ek baar....
Aate rahiye...