सत्य
कांच की दीवार - सा
पारदर्शी
जिसके आर - पार
सारे भेद
दृश्य हैं
स्पष्ट रूप से .
सत्य
कांच की दीवार - सा
दरकता नहीं ,
टूटता - बिखरता नहीं .
फिर भी
चुभती हैं
इसकी किरचिया
रूह के
अदृश्य कदमों में
और
रिसने लगता है
खदबदाता लहू
पीड़ा और तड़प का .
सत्य
कठोर है
निर्मम है
लेकिन जैसा भी है
शुद्ध और पवित्र है ,
स्वीकार है मुझे .
यही तो
स्वरुप है
ईश्वर का .