ग़ज़ल -
6th March 2021, 04:41 PM
ग़ज़ल- झूठे हो हरजाई हो
मैं नहीं कहती हूँ तुम झूठे हो हरजाई हो
पर कहीं बातों में थोड़ी सी तो सच्चाई हो
इस तरह फ़ेर के नज़रों को उठाया उसने
जैसे सूरज की शुआओं ने ली अँगड़ाई हो
वस्ल की रात में बरसात का मौसम वल्लाह
और बिखरी हुई हर सू तेरी रानाई हो
ज़िन्दगी ख़त्म हुई जाती है रफ्ता रफ्ता
अब तो इन साँसों में कुछ सब्र ओ शकेबाई हो
ऐसे लम्हात भी आएँगे यक़ीनन यारा
मेरे अश्आर से ही मेरी शनासाई हो
रंग ए महफ़िल में ग़ज़ल तू भी सुना दे 'निर्मल'
उसमें चाहे तो फ़कत क़ाफ़िया पैमाई हो
स्वरचित
रचना निर्मल
दिल्ली
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