रिहाई चाहता हूँ, अब कफस में जी नहीं लगता -
21st February 2015, 06:33 PM
रिहाई चाहता हूँ, अब कफस में जी नहीं लगता
बहुत ढूँढा, मगर अपना यहाँ कोई नहीं लगता
बुझा जाता हूँ खुद, अब और आँधी की ज़रूरत क्या?
उजाला चश्मेतर का क्या तुम्हें फानी नहीं लगता?
यह मुफलिस की है बीमारी, इसे मुफलिस ही समझेगा
यहाँ से चल, दवाखाना यह खैराती नहीं लगता
यह क्यों पेड़ों पर झूलों की जगह लाशें लटकती हैं
उसे क्या खाक समझाएँ, वह देहाती नहीं लगता
सनम की मरमरी बाहें, तराशासा बदन उसका
यह पत्थर वह है जिसमें दूर तक पानी नहीं लगता
टटोलो दिल को पहले, नाक-नकशा बाद में देखो
अजी, सूरत से खुद शैतान भी पापी नहीं लगता
किताबों में पढा था, ज़िंदगी यह खूबसूरत है
किताबों का ,'भँवर', हर लफ्ज़ बेमानी नहीं लगता?
|